जयराम शुक्ल : एकाएक नफरत क्यों भड़क रही !
नवसंवत्सर से हनुमान जयंती तक के बीच में देश में कोई सात दंगे हुए। रामनवमी के दिन मध्यप्रदेश का खरगोन आग से झुलस उठा। रामदरबार की झाँकी के साथ निकल रही शोभायात्रा पर पत्थरों, पेट्रोल बमों की बारिश हुई। कुछ सिरफिरे युवाओं ने भीड़ में तलवार बाजी की। उसके कवर कर रहे शैतानों ने गोलियां दागीं।
गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पुलिस अधीक्षक को गोली लगी वे अस्पताल में है। एक मासूम अस्पताल में जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहा है। हमले मंदिरों पर भी हुए। उन्हें तोड़ा और मूर्तियां नष्ट की गईं। बताने की जरूरत नहीं कि यह क्यों और किन लोगों ने किया। यह भी बहस का अलग विषय है कि खुफिया तंत्र और प्रशासन फेल रहा। विमर्श का विषय यह कि नफरत की आग यकायक इतनी तेज कैसे होने लगी?
हम जितनी तरक्की करते जा रहे हैं। पढ़ने-अध्ययन करने में जितने प्रवीण होते जा रहे हैं उसकी दूनी रफ्तार से दकियानूस और खुदगर्ज भी। दरअसल यह खेल उन लोगों का है जो देश के भीतर और बाहर यह बात तेजी से फैला रहे हैं कि भारत में मुसलमान असुरक्षित हैं।
ये वही लोग हैं जिन्होंने ऐसी ही असुरक्षा की भावना फैलाकर छह दशकों तक मुसलमान वोटरों को दुहा और मंचों से गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई दी। मुसलमानों को एक कौम के रूप में पाले और बनाए रखा। कौम का मतलब राष्ट्र होता है तो क्या राष्ट्र भीतर या समानांतर कोई दूसरा राष्ट्र(कौम) भी है। हम अक्सर तकरीरें सुनते हैं कि ‘हम अपने कौम के लोगों से यह इल्तिजा करते हैं’। क्या मतलब हुआ इसका? क्या हम और आप कौम(राष्ट्र) में शामिल नहीं हैं..?
जिस किसी ने गंगा-जमुनी संस्कृति की थ्योरी दी और जिन्होंने इसे स्थापित किया वे ही आज नफरत की इस लहलहाती फसल के लिए जिम्मेदार हैं। एक राष्ट्र में दो समानांतर संस्कृति नहीं बह सकती। उनमें क्षेत्र और समय के हिसाब से वैविध्य अवश्य हो सकता है पर प्रतिद्वंदिता नहीं। यहाँ दशकों से गंगा के समानांतर जमुना की बात की जाती है।
जमुना का अस्तित्व तो प्रयाग में आकर खत्म हो जाता है। न जाने कितने नद-नदियां और नाले गंगा में आकर गंगामय हो जाते हैं। उनका अस्तित्व विलीन हो जाता है।
उसी तरह देश की विभिन्न सभ्यताओं, परंपराओं और संस्कृतियाँ मिलकर राष्ट्रीय संस्कृति गढ़ती हैं।
हिन्दू कभी असहिष्णु नहीं रहे। आज भी वे न जाने कितने पीर और औलिया को मानते हैं। मजारों में जाकर मन्नतें माँगते व मत्था टेकते हैं। अजमेर शरीफ और निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में जाइए आपको मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू ही मिलेंगे। लेकिन हिन्दू तीर्थ स्थलों व उनके देवी-देवताओं को लेकर जो भाव महमूद गजनवी और बाबर में था कमोबेश वही आज भी है। जबकि उनमें से बड़ी संख्या (90प्रतिशत के करीब) के मुसलमानों की पितृभूमि व उनके पुरखों की पुण्यभूमि यही भारत है।
पता नहीं इस यथार्थ को क्यों नहीं समझाया जाता। जब यही समझाइश राही मासूम रजा और आरिफ मोहम्मद खान जैसे विशुद्ध मुस्लिम स्कालर देते हैं तो उन्हें काफिर घोषित कर दिया जाता है। उनके दकियानूसी विचारों और परदे के पीछे के पापों को जब तस्लीमा नसरीन और सैटनिक वर्सेस के लेखक सलमान रश्दी देने लगते हैं तो उनके सिर को कलम करने का हुक्म सुना दिया जाता है।
मध्ययुग में रसखान, रहीम, जायसी, नजीर और न जाने कितने मुस्लिम स्कालर हुए जिन्होंने अपने धर्म को नहीं बदला लेकिन भारतीय संस्कृति और उनके महापुरुषों पर इतना सुंदर लिखा जिसे हम भजन-कीर्तन की तरह याद रखते हैं। क्या यह धारा फिर नहीं बह सकती। यदि हमने निजामुद्दीन औलिया और अजमेर शरीफ समेत अनगिनत पीर-औलिया-और बाबाओं को सिरमाथे पर रखते हैं उनके दर पर जाकर आस्था व्यक्त करते हैं तो दूसरों के धर्म के प्रति सद्भाव की यह धारा देवबंद और बरेली से क्यों नहीं फूटनी चाहए।
जो धर्म जड़ होता है आज नहीं तो कल उसका मरना तय है। उदात्तता ही उसे सतत् बनाए रखती है इसीलिए हमारा धर्म धर्म है रिलीजन नहीं, वह सनातन धर्म है। कभी-कभी प्रश्न उठता है कि ईसाइयत को आए 22 सौ वर्ष हुए और इस्लाम के मुश्किल से 17 सौ वर्ष।
जब ये धर्म नहीं थे तब आज के इनके अनुयायियों के पुरखे किस धर्म के अनुयायी रहे होंगे। इससे पहले के धर्मों में अग्निपूजकों का धर्म था, उनके पहले भी कोई धर्म रहा होगा। और वह धर्म सनातन ही ही है जिससे विश्वभर में अलग-अलग नए पंथ तैयार होते गए। यानी कि सभी के मूल में सनातन धर्म ऐसे ही है जैसे की ईश्वर, अल्लाह, जीसस एक हैं। उन तक पहुँचने के पंथ, पद्धति और मार्ग में विभेद हो सकता है। विवेकानंद ने अपने संभाषणों में यही कहा। रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में भी लगभग ऐसी ही व्याख्याएं दीं।
कभी-कभी लगता है कि गाँव के अनपढ़ और आधुनिक शिक्षा से दूर कहे जाने वाले लोग धर्माचार्यों और मौलवियों की अपेक्षा धर्म के मर्म को न सिर्फ ज्यादा जानते हैं अपितु उसे जीते भी हैं।
मुझे अपने गाँव का वो अली और बजरंगबली वाला दृष्टान्त याद आ रहा है जब इन दोनों देवों में बँटवारा नहीं हुआ था…। “बात 67-68 की है। मेरे गाँव में बिजली की लाइन खिंच रही थी। तब दस-दस मजदूर एक खंभे को लादकर चलते थे। मेंड़, खाईं, खोह में गढ्ढे खोदकर खड़ा करते। जब ताकत की जरूरत पड़ती तब एक बोलता.. या अलीईईईई.. जवाब में बाँकी मजूर जोर से एक साथ जवाब देते…मदद करें बजरंगबली..और खंभा खड़ा हो जाता।
सभी मजूर एक कैंप में रहते, साझे चूल्हें में एक ही बर्तन पर खाना बनाते। थालियां कम थी तो एक ही थाली में खाते भी थे। जहाँतक याद आता है..एक का मजहर नाम था और एक का मंगल।
वो हमलोग इसलिए जानते थे कि दोनों में जय-बीरू जैसे जुगुलबंदी थी। जब काम पर निकलते तो एक बोलता – चल भई मजहर..दूसरा कहता हाँ भाई मंगल।
अपनी उमर कोई पाँच-छ: साल की रही होगी, बिजली तब गाँव के लिए तिलस्म थी जो साकार होने जा रही थी। यही कौतूहल हम बच्चों को वहां तक खींच ले जाता था। वो लोग अच्छे थे एल्मुनियम के तार के बचे हुए टुकड़े देकर हम लोगों को खुश रखते थे।
उनदिनों हम लोग भी खेलकूद में.. याअली..मदद करें बजरंगबली का नारा लगाते थे और मजाक में एक दूसरे को मजहर-मंगल कहकर बुलाते थे।
उनकी एक ही जाति थी..मजूर और एक ही पूजा पद्धति मजूरी करना। तालाब की मेंड़ के नीचे लगभग महीना भर उनका कैंप था न किसी को हनुमान चालीसा पढ़ते देखा न ही नमाज।
सब एक जैसी चिथड़ी हुई बनियान पहनते थे, पसीना भी एक सा तलतलाके बहता था। खंभे में हाथ दब जाए तो कराह की आवाज़ भी एक सी ही थी। और हां मजहर के लोहू का रंग भी पीला नहीं लाल ही था।
तुलसी बाबा कह गए-
रामसीय मैं सब जगजानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
बाद में गालिब ने इसकी पुष्टि करते हुए ..मौलवियों से पूछा…या वो जगह बाता दे जहाँ खुदा न हो..!
यह अजीब हवा-ए-तरक्की है .सबकुछ बँट गया हाँसिल आया लब्धे शून्य..! इस शून्य की पीठपर सिंहासन धरके किस पर राज करोगे भाई।
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