-जेपी और नानाजी- राजनीति के जंगल में शुचिता के द्वीप..! जयंती / जयराम शुक्ल

अक्टूबर का महीना बड़े महत्व का है। पावन,मनभावन और आराधन का। भगवान मुहूर्त देखकर ही विभूतियों को धरती पर भेजता है। 2 अक्टूबर को गांधीजी, शास्त्रीजी की जयंती थी। 11अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख की जयंती है, अगले दिन ही डा.राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि।

इन सबके बीच ही परस्पर साम्य है। गांधी मानवता के वांगमय हैं तो शास्त्री उसके लघु संस्करण। जेपी ल़ोकनायक हैं तो नानाजी राष्ट्रऋषि और डा.लोहिया समाजवाद के जीवंत स्वरूप, अनुयायियों के लिए देशप्राण। पाँचों का जीवन खुली किताब, लोक के लिए समर्पित।

शास्त्रीजी को छोड़कर बाकी सभी सत्ता से वीतरागी रहे। शास्त्रीजी तो विदेहराज जनक की तरह सत्ता का संचालन किया। कमल के पत्ते में पानी की बूंद की तरह निर्मल, निश्छल, निस्पृह। भगवान इन विभूतियों को न भेजता तो भारतवर्ष में लोक आदर्श के प्रतिमान कौन गढता। समाज के उच्च आदर्शों का पैमाना पीढियों को पथ से विचलन से बचाता है। इस एक महीने में देवी-देवताओं के आराधन के साथ इन लौकिक विभूतियों का स्मरण भी उतना ही आवश्यक है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा-जो पीढी अपने पुरखों के आदर्श को भुला देती वह रुग्ण होकर अपना अंधकारमय भविष्य गढती है। पर्व संस्कृति इसीलिये रची गई है,जिससे हर क्षण न सही ऐसी विभूतियों के जीवन व मरण के दिन उनके कृतित्व व व्यक्तित्व का स्मरण कर लिया जाए।

8 अक्टूबर जेपी के महाप्रयाण का भी दिन रहता है। जेपी ने आजादी की लड़ाई तो योद्घा की भाँति लड़ी।पर देसी गुलामी के खिलाफ लड़ते हुए खुद को होम दिया। वैचारिक पृष्ठभूमि अलग-अलग होते हुए भी जेपी और नाना जी के बीच दुर्लभ साम्य था।

जेपी विजनरी थे, नानाजी मिशनरी। दोनों ने ही लोकनीति को राजनीति से ऊपर रखा। जेपी संपूर्ण क्रांति के उद्घोषक थे तो नानाजी इसके प्रचारक। दोनों एक दूसरे के लिए अपरिहार्य थे। सन् 74 के पटना आंदोलन में जब पुलिस की लाठी जेपी पर उठी तो उसे नानाजी झेल गए। वही लाठी फिर इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन से मुक्ति की वजह बनी।

नानाजी भारतीय राजनीति के पहले सोशल इंजीनियर थे। भारतीय जनसंघ को विपक्ष की राजनीति में जो सर्वस्वीकार्यता मिली उसके पीछे नानाजी के भीतर चौबीस घंटे जाग्रत रहने वाला कुशल संगठक की ही भूमिका थी।

1960 के बाद के घटनाक्रम देखें तो लगता है कि नानाजी और जेपी का मिलन ईश्वरीय आदेश ही था। अब इन दोनों को अलग अलग व्यक्तित्व के रूप में परखें तो भी इनका ओर-छोर एक दूसरे से उलझा हुआ मिलेगा। ये दोनों रेल की समानांतर पटरियां जैसे नहीं अपितु पटरी और रेलगाड़ी के बीच जो रिश्ता होता है वे थे। जेपी और नानाजी में पटरी और गाड़ी की भूमिका की अदला बदली जेपी के जीवन पर्यंत चलती रही।

स्वतंत्रता संग्राम में गांधी,नेहरू,पटेल के बाद जेपी सबसे ओजस्वी, तेजस्वी योद्धाओं के हरावल दस्ते थे। उनके इस दस्ते में डा.राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव,जेबी कृपलानी जैसे प्रखर और उद्भट लोग थे। ये तब भी आजादी की लड़ाई को अंग्रेजों से मुक्ति भर का मिशन नहीं मानते थे बल्कि लोकजागरण भी उतना ही अभीष्ट मानते थे।

जब इन्हें ऐसा लगा कि कांग्रेस की मुख्यधारा का आंदोलन अँग्रजों से येनकेनप्रकारेण सत्ता हस्तांतरण का है तो जेल में मीनू मसानी,अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता जैसे तत्कालीन युवातुर्कों को लेकर काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया। यह दल कांग्रेस की स्वेच्छाचरिता पर लगाम कसने का काम करता रहा।

जेपी सुभाष बाबू और गांधी जी के बीच सुलह की सेतु बनकर उभरे। क्योंकि वे मानते थे की गाँधीजी का विचार दर्शन और नेता जी सुभाष का नेतृत्व ही देश को सही दिशा दे सकता है। नेहरू के प्रति गांधीजी के अतिरिक्त स्नेह व नेहरू की महत्वाकांक्षा ने जेपी,लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, कृपलानी इन सबको काँग्रेस से हटकर उसके विकल्प के बारे में सोचने को मजबूर किया। जबकि महात्मा गांधी जेपी को नेहरू के उत्तराधिकारी के तौरपर देखते थे।

और वह क्षण आया भी जब प्रधानमंत्री रहते हुए नेहरू की मृत्यु हुई। कुलदीप नैय्यर ने विटवीन्स द लाइन में लिखा- कि जब नेहरू के उत्तराधिकारी की बात शुरू हुई तब लालबहादुर शास्त्रीजी ने स्वयं यह कहा कि इस पद के स्वाभाविक उत्तराधिकारी जयप्रकाश नारायण जी हैं।

जेपी आजादी के बाद से ही सत्ता के रंगढंग से आहत थे। 1957 में ही उन्होंने राजनीति छोड़कर लोकनीति को चुन लिया था। इसके तत्काल बाद वे आचार्य विनोवा भावे के भूदान और सर्वोदय आंदोलन से जुड़ गए।

वे राजनीति में शायद लौटते भी नहीं यदि इंदिरा गांधी के निरंकुश और स्वेच्छाचरिता भरे शासन से जनता त्रस्त नहीं होती। 1970 में उन्होंने ने राजनीति में पुनः वापसी की। इस बार उनके पास सप्तक्रांति का एजेंडा था। वे राजनीतिक,आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और नैतिक क्रांति चाहते थे। बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से त्रस्त युवा उनकी एक हुंकार से जुड़ गया। छात्रों व युवाओं में ऐसा जोश उमड़ा कि सिंहासन हिलने लगा।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जब इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को निरस्त कर दिया और उन्होंने पद त्यागने से मनाकर दिया तभी जेपी ने दिल्ली के रामलीला से वह ऐतिहासिक हुंकार भरी..सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..। सत्ता मदांध हो गई। आपातकाल के रूप में देश ने दूसरी गुलामी देखी फिर उसके बाद क्या हुआ.. ज्यादा बताने की जरूरत नहीं।

दूसरी गुलामी से मुक्ति का आंदोलन परवान पर नहीं चढता यदि जेपी को नानाजी जैसे सारथी नहीं मिले होते। नानाजी सप्तक्रांति के संगठक तो थे ही, आपातकाल के बाद जनता पार्टी के प्रमुख योजनाकार भी रहे। संघ का मनोबल और जनसंघ का नेटवर्क नहीं होता तो जनतापार्टी काँग्रेस से निकले हुए लोगों का कुनबा बनके रह जाती।

यह शायद कम लोगों को ही पता है कि आपातकाल हटाने के बाद सभी नेता रिहा कर दिए गए एक नानाजी को छोड़कर। इंदिरा जी ने इसपर तर्क दिया कि चुनाव लड़ने वाले तो सभी रिहा कर दिए गए क्या नानाजी देशमुख भी चुनाव लड़ेंगे? नानाजी ने कहा वे जेल में ही दिन काट लेंगे, चुनाव लड़ना अपना काम नहीं.. उनका कहना था..अब संघर्ष नहीं समन्वय, सत्ता नहीं अंतिम छोर पर खड़े मनुष्य की सेवा.. बस यही ध्येय है।

रामनाथ गोयनका ने जेपी को इसके लिए मनाया कि नानाजी चुनाव लड़े। जेपी के आग्रह पर नानाजी ने चुनाव लड़ने की सहमति दी। जेल से बाहर आए,बलरामपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा,पौने दो लाख मतों से जीते।

जनता पार्टी की सरकार गठन होने के बाद सत्ता में भागीदारी की होड़ मच गई। मोरारजी ने नानाजी से बात किए बगैर उन्हें उद्योग मंत्री बनाने की घोषणा कर दी। नानाजी ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए कहा कि 60 वर्ष की उम्र पार करने के बाद वे सत्ता का हिस्सा नहीं बनना चाहते।

उन्होंने समाज सेवा का अपना रास्ता चुन लिया। पं.दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से समूचे देश में उनके सेवा प्रकल्प आज विश्व भर में आदर्श उदाहरण हैं। नानाजी प्रयोगधर्मी थे। वे अपने जीते जी एकात्ममानव दर्शन और सप्तक्रांति के आदर्शों को जमीन पर उतारने के लिए स्वयं समर्पित रहे।

संपर्क : 8225812813

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *