कृष्ण : प्रेमी, योद्धा या दार्शनिक… -देवेन्द्र सिकरवार

सर्वप्रथम तो यह बहस प्रारंभ होने से पहले ही मैं यह कहकर समाप्त करता हूँ कि कृष्ण के प्रत्येक रूप को अपने अध्ययन, मनन व ध्यान के लिये चुन सकता है लेकिन जो भी कृष्ण के अन्य रूपों का निषेध करता है वह न केवल ‘कृष्ण’ के ‘क’ से अपरिचित है बल्कि वह कृष्ण संबंधी इतिहास को नष्ट करने का भी अपराधी है।

(लेखक सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक विषयों के विश्लेषक हैं)

कृष्ण चूँकि अपने समय से हजारों वर्ष पूर्व ही पैदा हुए अतः समकालीन व्यक्तित्वों में से केवल कुछ ही उन्हें समझ पाये और शेष समाज ने उनका अनुकरण भर किया। यही स्थिति आज भी बनी हुई है लेकिन वर्तमान में विज्ञान और जीवन सुविधाओं के कारण पश्चिम कृष्ण को समझने के नजदीक जा रहा है और यही कारण है कि इस्कॉन पूरब की तुलना में पश्चिम में तेजी से फैल रहा है।

अस्तु!

पिछले दिनों योद्धाओं की सारणी पर बहुत से विद्वतजनों की आपत्ति कृष्ण को शीर्ष पर रखने को लेकर थी और कमोबेश उनके तीन आधार समान थे-

1) कृष्ण रणछोड़ थे।
2)कृष्ण रणनीतिकार व कूटनीतिज्ञ मात्र थे और युद्ध बहुत कम लड़े।
3)कृष्ण से शिव का युद्ध मेरी कल्पना मात्र है।

प्रथम आपत्ति उन लोगों की है जिन्हें प्राचीन सैन्य विज्ञान के विषयक जानकारी नहीं कि ‘इंसिजर अटैक’ अर्थात ‘कैंची आक्रमण’ क्या होता है। भारतीय इतिहास में इस आक्रमण का दो बार उल्लेख मिलता है।

प्रथम, उत्तरपश्चिम से कालयवन व पूरब से जरासंध का मथुरा पर आक्रमण।
द्वितीय, महाराज भोज परमार पर एक दिशा से भीम सोलंकी और एक ओर से कलचुरि कर्ण का आक्रमण।

महाराज भोज ने महान विद्वान व रणनीति विशेषज्ञ होने के उपरांत भी दोंनों का एक साथ सामना किया और दुःखद वीरगति को प्राप्त हुये। परमार साम्राज्य फिर उठ न सका।

दूसरी ओर भोज से हजारों वर्ष पूर्व ही कृष्ण ने इसका तोड़ ढूंढ कर बता दिया था।

उन्होंने माथुरों को पश्चिम की ओर भेजा और स्वयं अकेले रुककर कालयवन को अपनी ओर आने के लिए ललचाया। कालयवन जाल में फँस गया और कृष्ण ने सारी यवन सेना को चंबल के बीहड़ों में उलझाकर कालयवन सहित एक एक यवन सैनिक को पूर्ण निष्ठुरता से मरवा दिया और भविष्य के हिन्दू सेनापतियों के समक्ष एक रणनीतिक सीख रखी जिसका पूरा पूरा फायदा उठाया था राणा उदय सिंह, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी व राणा राजसिंह ने।

अब चूंकि तत्कालीन कृष्णविरोधियों को कुछ तो झेंप मिटानी थी तो उन्होंने कृष्ण कों कलंकित करने हेतु उन्हें नाम दिया- ‘रणछोड़’। अब आपका चुनाव है कि आप कृष्ण के ‘रण’ छोड़ने की नीति को उनपर कलंक मानेंगे या उनका यश।

द्वितीय मत के लोगों का मानना है कि वे केवल रणनीतिकार व कूटनीतिज्ञ थे, योद्धा नहीं।

जबकि कृष्ण से ज्यादा युद्ध हिंदुओं के इतिहास में किसी महानायक ने किए ही नहीं।

आप उनकी व्यस्तता का अनुमान लगाएं कि वे अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी छः महीने से ज्यादा द्वारिका में रह ही नहीं पाए।

बाल्यकाल के संघर्षों को छोड़ भी दें तो भी उनके युद्धों की संख्या असंख्य है जिनमें से कुछ ये हैं-

1- गुरु सांदीपनि की गुरुदक्षिणा चुकाने हेतु यमपुरी (संभवतः वर्तमान ईरान में) जाते समय पश्चिम एशिया के असुर साम्राज्य के शक्तिशाली व्यापारी ‘पंचजन’ से नौसैनिक युद्ध लड़ा और उसे नष्ट करने के बाद उससे देवजाति से चुराया गया ‘पांचजन्य’ शंख वापस ले लिया।

2- लौटते ही उन्हें जरासंध से छोटे बड़े अठारह युद्ध लड़े।

3-अंतिम युद्ध में उन्होंने पहले कालयवन को परास्त किया।

4- कालयवन को परास्त करने के बाद गोवा के नजदीक कोंकण की किसी तंग घाटी में जरासंध को परास्त किया।

5-रुक्मिणी हरण के दौरान उन्होंने रुक्मी को व्यक्तिगत द्वंद्व में परास्त किया।

6- द्रौपदी स्वयंवर में उनकी एक धमकी पर युद्धरत पक्ष शांत हो गए। यह कूटनीतिज्ञ कृष्ण नहीं योद्धा कृष्ण का आतंक था।

7-स्यमंतक मणि के प्रसंग में जाम्बवान के साथ उनका द्वंद्व युद्ध हुआ जिसमें पराजित होकर जाम्बवान ने अपनी पुत्री जाम्बवन्ती का विवाह उनसे कर दिया।

8-मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में वही प्रतियोगिता रखी गई जो द्रौपदी स्वयंवर में थी लेकिन चक्र के घूमने की गति बहुत तीव्र थी। जब अर्जुन भी लक्ष्यवेध करने में असफल रहे तब कृष्ण ने लक्ष्यवेध किया।

9- खण्डव दहन के समय अर्जुन के साथ मिलकर राक्षसों, नागों व देवों की सेना का एक साथ सामना किया। यहीं उन्हें देव अग्नि से दूसरा चक्र और अर्जुन को गांडीव मिला।

10-पांडवों के राजसूय यज्ञ के बाद जब वह इंद्रप्रस्थ में ठहर गये थे शाल्व ने द्वारिका पर आक्रमण कर यादवों को परास्त कर दिया व द्वारिका को नष्ट कर दिया। कृष्ण शाल्व की सोच से भी ज्यादा तेजी से लौटे और शाल्व को उसके अभेद्य विमान सहित नष्ट कर दिया।

11- उसी समय बक्सर यानि करूष के राजा दन्तवक्त्र जो कृष्ण का मौसेरा भाई भी था उसने शाल्व का प्रतिशोध लेने हेतु आक्रमण किया। कृष्ण ने गदायुद्ध में उसका भी वध कर दिया।

12-जब पांडव वनवास में थे असहाय स्त्रियों की पुकार पर कृष्ण ने आसाम स्थित प्राग्ज्योतिषपुर पर आक्रमण किया और नरकासुर का वध कर दिया।

13-असम के ऊपरी भाग स्थित ‘त्रिविष्टप’ अर्थात वर्तमान तिब्बत स्थित देव सभ्यता की राजधानी अमरावती में अहंकारग्रसित इंद्र व देवसेना से उनका युद्ध हुआ और इस युद्ध में भी उन्होंने इंद्र को धूल चटाकर संधि करने पर विवश किया कि वह भारत विशेषतः कृष्ण संबंधी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।

14-महाभारत युद्ध प्रारंभ होने और दूत बनकर जाने से पूर्व ही उन्होंने एक सैनिक टुकड़ी लेकर एकलव्य पर आक्रमण किया और उसका वध कर दिया क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि उसका कौरव पक्ष में जाना पांडवों के लिए बहुत घातक सिद्ध होगा। अपने इस अभियान का खुलासा उन्होंने महाभारत युद्ध में घटोत्कच की मृत्यु के बाद किया था।

15-महाभारत युद्ध के बाद बंगाल स्थित पुण्ड्र के राजा पौंड्रक वासुदेव जिसने प्रजा का धार्मिक उत्पीड़न कर रखा था, कृष्ण को चुनौती दी और अवसर की तलाश में बैठे कृष्ण ने ससैन्य आक्रमण कर न केवल पौंड्रक वासुदेव का वध कर दिया बल्कि उसके सहयोगी काशिराज जिंसने स्वयं काशी को अभिचारिकों व तांत्रिक ब्राह्मणों का घर बनाकर पूर्वांचल का उत्पीड़न कर रखा था, का भी वध कर दिया।

काशीनरेश के पुत्र सुदक्षिण ने अभिचारण के माध्यम से प्रजाउत्पीड़क ब्राह्मणों द्वारा उत्पन्न कृत्या द्वारा कृष्ण को मरवाना चाहा लेकिन क्रुद्ध कृष्ण ने कृत्या का ही वध नहीं किया बल्कि अभिचारिकों के गढ़ बन चुके काशी को ही जलाकर भस्म कर दिया।

16-उनका सबसे भयानक युद्ध अनिरुद्ध विवाह के प्रसंग में बाणासुर से हुआ जिसके पक्ष में स्वयं भोलेनाथ महारुद्र महादेव कार्तिकेय, गणेश, नंदी व वीरभद्र आदि गणों के साथ उतर आए।

कृष्ण व शिव के बीच युद्ध लौकिक अस्त्र शस्त्रों से होता हुआ ‘माहेश्वर ज्वर’ व ‘वैष्णव ज्वर’ जैसे बायोवैपन्स तक पहुंच गया। यहाँ तक कि महारुद्र द्वारा अपना प्रलयंकर पाशुपतास्त्र और कृष्ण द्वारा विश्व विनाश की क्षमता रखने वाले सुदर्शन चक्र के उपयोग की स्थिति बन गई। लेकिन अंततः कृष्ण ने ज्रम्भकास्त्र के प्रयोग से महादेव को परास्त कर दिया और महादेव की सलाह पर बाणासुर ने भी पराजय स्वीकार कर अपनी पुत्री ऊषा का विवाह अनिरुद्ध से कर दिया।

17- पांडवों के अश्वमेध युद्ध के समय भी उन्हें बार बार अर्जुन की सहायता के लिए जाना पड़ा व युद्ध में भाग लेना पड़ा।

18-उनका अंतिम युद्ध उनके अपने ही यादवों से हुआ जिसमें उन्होंने अधिसंख्य यादवों को मार दिया क्योंकि उन्हें पूरा विश्वास था कि उनके जाने के बाद अजेय दिव्यास्त्रों के जानकार उनके ये यादव वंशज मासूम प्रजाजनों का उत्पीड़न करेंगे।

तो ये थे उनके योद्धा रूप की एक बानगी।

अब भी अगर किसी को उनके सर्वश्रेष्ठ योद्धा व जनरल होने के बारे में संदेह है तो कुछ नहीं किया जा सकता।
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Note:-जिन्हें कृष्ण-शिव युद्ध व काशी दहन पर शंका है वे श्रीमद्भागवत और हरिवंश पुराण का अध्ययन करने का कष्ट उठाएं।

 

 

 

 

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