डॉ. भूपेंद्र सिंग : भाजपा.. दो माह और देर हुई तो प्लेटफॉर्म से निकली गाड़ी पकड़ में नहीं आएगी
एक बड़ा तबका उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनाम प्रधानमंत्री के नैरेटिव को बढ़ाने में लगा है। ये लोग 2027 में भाजपा और मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ के लिए बड़ा संकट खड़ा कर सकते हैं। भाजपा के भीतर विभाजन है, ऐसी बात खड़ा करने वाले ज्यादातर वो लोग हैं जो परम्परागत रूप से भाजपा के मूल समर्थक नहीं है। इन्हें नहीं पता है कि इस तरह का नैरेटिव खड़ा करने से मुख्यमंत्री को कोई फायदा तो नहीं मिलने वाला, लेकिन घाटा अवश्य होगा।
2017 का चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लड़ा गया चुनाव था जहां भाजपा ने सपा का सफाया कर दिया, लेकिन 2022 चुनाव में बावजूद इसके मुख्यमंत्री श्री योगी को भाजपा ने अपना नेता बनाकर चुनाव नहीं लड़ा। यह बात अलग है कि योगी जी की अपनी ख़ुद की पहचान इतनी गाढ़ी है कि उसे कोई पर्दे के पीछे नहीं धकेल सकता। लेकिन जब पूर्वांचल में चुनाव के आख़िरी दो चरणों में यह ख़बर आई कि वहाँ अगड़ा बनाम पिछड़ा हो गया है तो ऐसे में ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी जी ने वाराणसी में डेरा डाल लिया और योगी जी को चुनाव प्रचार से एक प्रकार से पीछे कर दिया गया। प्रधानमंत्री जी के उन सभाओं के कारण पूर्वांचल के कुछ जिले संभल गए और पुनः योगी जी को मुख्यमंत्री बनाया गया। ऐसे में बार बार ग़ैर भाजपाई मुख्यमंत्री समर्थक समूह द्वारा यह नैरेटिव बनाना कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ हैं, इसमें दूर दूर तक सत्यता नज़र नहीं आती।
लेकिन यदि आप यह सोचते हैं कि बाक़ी नेता एकदम चुप रहें, शांत बैठे रहें तो यह भी अनुचित है क्योंकि वह नेता जिन वर्गों का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं, उनके बीच उनके चैतन्यता और राजनीति के पटल पर प्रमुखता से उपस्थिति का प्रमाण जाना भी आवश्यक है। भाजपा का एक तिहाई वोटर ऐसा है जो केवल और केवल भाजपा का ही बटन दबाएगा चाहे जैसी परिस्थिति आ जाए, वहीं एक तिहाई वोटर केवल और केवल प्रधानमंत्री जी के नाम पर वोट देता है। मुख्यमंत्री जी की अपनी पूंजी भी एक तिहाई है। यह ग़ैरभाजपाई समर्थक वर्ग भाजपा के दो तिहाई वोटों को मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ भड़काने में लगा है। यह समझ के बाहर है कि ये लोग सपा के कहने पर ऐसा कर रहे हैं अथवा वह अपने मूर्खता में यह काम कर रहे हैं?
उत्तर प्रदेश में भाजपा की स्थिति ठीक नहीं है और ऐसे में यह विभाजन उसे और कमजोर करेगा। जल्द से जल्द जातीय समीकरण को साधना पड़ेगा। भाजपा को सत्ता में वापसी के लिए सीधे सीधे हिंदुओं का आधे से अधिक वोट हासिल करना होगा, इसका कोई विकल्प नहीं है। ओबीसी समाज का अपना कोई नैरेटिव न होने से वह दलित नैरेटिव से ख़ुद को जोड़ लिया है। भाजपा ने कभी ओबीसी नैरेटिव को बनाया नहीं, और किसी को उसकी जरूरत नहीं। जैसे जैसे ग़ैर भाजपाई दल ओबीसी और दलित नैरेटिव का घालमेल बढ़ाते जायेंगे, वैसे वैसे भाजपा के ख़िलाफ़ वोट इकट्ठा होता जायेगा। लोधियों को छोड़कर कोई भी प्रोमिनेंट ओबीसी जाति नैरेटिव के आधार पर भाजपा के साथ नहीं है। जो हैं वह हिंदुत्व के प्रेम के कारण हैं, ओबीसी नैरेटिव के कारण नहीं। हिंदू मुस्लिम मामले से जितने लोगों को भाजपा के लिए कन्विंस होना था, वह हो चुके हैं। जिन लोगों ने भाजपा को छोड़ने का मन बना लिया है, उनके पास ऐसा कोई कारण नहीं है जिसके कारण वह पार्टी से जुड़े। ऐसा कारण जल्द से जल्द खोजना पड़ेगा।
दूसरी तरफ कार्यकर्ता सुस्त पड़ चुके हैं। कार्यकर्ताओं को व्यस्त रखने की नीति जो पार्टी ने पिछले दशक से अपनाई, उस कारण अब एक थकान दिख रही है। हर दो सप्ताह में कोई न कोई योजना कार्यकर्ताओं को दे दी जाती है। जिन कुछ एक लोगों के पास पैसा है, वह कार्य कर रहे हैं, लेकिन जो सामान्य कार्यकर्ता हैं, उनमें फ़ैटिग आ चुका है। उत्तर प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी हावी है, मंत्री उनके पीछे हैं, और सबसे पीछे संगठन जा चुका है।
दलितों में पासी जाति भाजपा के लिए संकटमोचन रही है लेकिन पार्टी ने आज़ तक एक उनका ढंग का नेता खड़ा नहीं किया और न ही कोई उनका सामाजिक संगठन खड़ा किया। वह भी अब दूर खड़े दिखाई पड़ रहे हैं। मौर्य समाज का महज एक तिहाई हिस्सा भाजपा के साथ खड़ा है लेकिन योगी जी के समर्थन के नाम पर रोज़ रोज़ केशव मौर्य जी का विरोध करने वाला वैचारिक समूह उन्हें भी अब पीछे धकेलने में लग गया है। कुर्मी राजनीतिक रूप से तेज सोचते हैं और यह देखकर वोट किया कि कहाँ से अपनी जाति का कैंडिडेट जीत सकता है। कुर्मियों को लंबे समय तक अपने साथ जोड़ने का दावा करने वाले अपना दल में फुट पहले ही पड़ चुका था लेकिन फिर भी अधिकांश कार्यकर्ता अनुप्रिय पटेल के साथ थे। लेकिन पिछले दिनों पार्टी में इस्तीफे की लाइन लग चुकी है। ओबीसी नैरेटिव को दलित नेरेटिव से अलग न कर पाने के कारण अपना दल जितना अधिक अंबेडकर और शाहू जी का नाम पुकारती रही, उनके समर्थक उतने अधिक सपा के नैरेटिव से संतुष्ट होते गए। इसलिए जब पार्टी में टूट के लिए लोग एकजुट होना शुरू नहीं हुए थे, तभी से मैं इस टूट के लिए कन्विंस था। रही सही कसर इस बात से पूरी हो गई कि पार्टी एक्सट्रीम परिवारवाद पर चली गई। अपना दल अनुप्रिया पटेल लॉबी की स्थिति वर्तमान में किसी भी प्रकार से अच्छी नहीं दिख रही। भाजपा के पास एक मात्र जो बड़ा दाव है वह हैं अति पिछड़े। अतिपिछड़े वर्ग के लोग भाजपा के विशेष चिंता के विषय लंबे समय से रहे हैं। राजनाथ सिंह जी के नेतृत्व में दो दशक पहले पार्टी ने अति पिछड़ों के लिए सोचना शुरू कर दिया था। इसलिए भाजपा यदि अति पिछड़ों के लिए कोई बड़ी घोषणा करती है तो यह जरूर इस चुनाव में पार्टी के लिए संजीवनी का काम कर सकती है।
पार्टी के नेतृत्व में ठहराव, कार्यकर्ताओं में उत्साह का अभाव, पिछड़ों के अलग नैरेटिव का अभाव, ब्यूरोक्रेसी का हावी होना, ग़ैर जाटव दलित और ग़ैर यादव ओबीसी समाज से एक भी दमदार नेता का न होना, पार्टी में मैनेजरों की भूमिका में अधिकता, ये सब ऐसे मुद्दे हैं, जिनकों जल्द से जल्द स्वीकार कर के ठीक करना आवश्यक है। अभी इतना समय है कि पार्टी पटरी पर लौट सकती है लेकिन यदि दो महीने और देरी हुई तो ट्रेन प्लेटफार्म से बहुत आगे निकल जाएगी, फिर दौड़ने पर भी पकड़ में नहीं आएगी।
