देवेंद्र सिकरवार : “बुद्ध कभी नहीं सोते..”
पश्चाताप
“शोकमय है जीवन!”, बुद्ध ने कहा था।
यही था वह प्रथम आर्य सत्य जिसे सिद्धार्थ ने अपने जीवन में सबसे पहले जाना था।
इन दुःखों का कोई अंत नहीं क्योंकि कर्मबंधनों में बंधे हैं हम जन्म जन्मांतरों के लिए।
केवल यह निद्रा ही है जो हमें मृत्यु की तरह समयचक्र के बंधन से मुक्त कर देती है।
निद्रा से मुझे याद आते हैं, मुचकुंद!
चक्रवर्ती मांधाता के पुत्र और पुरुकुत्स के भाई।
मुचकुंद, जिन्होंने देवताओं से मांगा था वरदान, अबाध गहन निद्रा का।
स्वार्थी इंद्र के फेर में आकर देव जाति के सेनापति बनना स्वीकार कर लिया और देवकार्य में सभी को भुला बैठे।
अपना मतलब गांठ कर इंद्र ने उन्हें ‘देवसेनापति’ के पद से मुक्त कर दिया।
मुचकुंद कहीं के नहीं रहे।
मुचकुंद की जगह खड़ा होकर सोचता हूँ तो मुझे विरक्ति का एक एहसास घेर लेता है।
कहीं पढ़ा या सुना था एक प्रश्न कि ब्रह्मांड में सबसे बुरा क्या है और उत्तर था – ‘पश्चाताप’।
इससे ज्यादा कटु सत्य किसी संवेदनशील ह्रदय के लिये हो नहीं सकता जो हर पल उसके विचारतंतुओं को विषैले काँटे सा चुभता रहता है।
पुत्र व पुत्री उन्हें समयातीत मान चुके थे।
उनके सिद्धांत उनका उपहास उड़ा रहे थे।
जिन देवताओं के लिये इतना कुछ किया उन्होंने स्वर्ग से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
दुःख, पश्चाताप और विवश क्रोध में भरे मुचकुंद की अवस्था का अनुभव करके शोक से भर जाता हूँ मैं।
जीवन की लालसा तो थी पर जीने का कोई उद्देश्य बचा ही नहीं था तो ऐसे में अवसाद से बोझिल मन के साथ मुचकुंद मांगते भी क्या और तब उन्होंने मांगा वर, अबाध व अगाध निद्रा का।
चर्मण्यवती के किनारे पर्वतों में गुफाओं की भूलभुलैया को चुना उन्होंने अपनी युग-युगान्त लंबी दीर्घ निद्रा हेतु कि जब सोकर उठें तो अतीत के दुःख और पश्चाताप उनका पीछा छोड़ दें और वे नये सूरज के साथ अपनी मुक्ति का प्रयत्न कर सकें।
मुचकुंद की ही तरह कभी-कभी मन इतना बोझिल हो उठता है कि मन करता है उनकी तरह ही किसी गुफा में घुसकर उसका दरवाजा बंद करके सो जाऊँ ताकि फिर जब उठूँ तो संसार बदल चुका हो, लोग बदल चुके हों व युग भी बदल चुका हो और मैं नये सूरज के साथ अपनी मुक्तियात्रा प्रारंभ कर सकूँ।
मैं मुचकुंद सा प्रतापी पुण्यव्रती अमर शरीर का अधिकारी तो नहीं हूँ लेकिन क्या ऐसी अंतिम निद्रा का अधिकारी भी नहीं कि जब इस जीवन की शोकपूर्ण जीवननिद्रा से जागूँ तो मुझे भी आँखों के समक्ष मुक्ति का प्रसाद लिये स्वयं माधव खड़े मिलें।
काश ऐसा संभव हो पाता!
शायद तब मैं भी बुद्ध बनकर कह पाता,
“बुद्ध कभी नहीं सोते।”
