प्रवीण कुमार मकवाणा : विकास दिव्यकीर्ति ने जो कहा, वह तो पुस्तकों में लिखा हुआ है, फिर असंगत क्या है ?
वाल्मीकि रामायण एवं भवभूति प्रणीत उत्तरामचरितम् के चयनित प्रसङ्गों पर विकास दिव्यकीर्ति द्वारा की गयी टिप्पणियों को लेकर दो पक्ष हैं। पहला पक्ष ट्रोलर्स का है, जिन पर कुछ भी कहना विशुद्ध मूर्खता सिद्ध होगी; अतएव उसे टाल देना अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त बात है।
मैं दूसरे पक्ष पर बात करना चाहता हूँ।
रामायण शास्त्र है, रामायण इतिहास है; लेकिन सबसे पहले रामायण एक काव्य है। वाल्मीकि सर्जना करते हैं, उनका प्रयोजन प्रमेय-सिद्धि नहीं; रामकथा का सम्प्रेषण है।
उनका लिखा शब्द-शब्द काव्य है।
कविता के सदैव दो पक्ष होते हैं – पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष। पूर्वपक्ष भूमिका, उत्तरपक्ष सिद्धान्त-निष्पादन। यह इतिहास के तथ्यों की अन्वेषणा करने जितना सरल तो कदापि नहीं। काव्य में घटना केवल उपजीव्यता के रूप में उपस्थित होती है। वह गौण होती है; महत्वपूर्ण होता सिद्धान्तपक्ष। जो वृतांत है, उसमें किसने क्या कहा, क्या किया – यह अर्थहीन है; महत्ता इसकी है कि कवि की दृष्टि क्या पकड़ पाती है।
राम-कथन अपनी जगह, सीता का पक्ष कौन जान रहा ? सीता और राम का सम्वाद समग्रता से देखा जाए तो कवि दृष्टि की विशालता ज्ञात होगी। काव्य तथ्य लक्षित नहीं करता।
पेंच यह फँस रहा कि विकास दिव्यकीर्ति ने जो कहा, वह तो पुस्तकों में लिखा हुआ है, फिर असंगत क्या है ? इसमें विकास जी की कोई असंगति नहीं, असंगति उनकी है, जिनकी पुस्तक से सन्दर्भ लिया गया – पुरुषोत्तम अग्रवाल। उससे भी अधिक असंगति विमर्श की है। भारत में काव्य के जो भी विमर्श चल रहे, विशेषतया आधुनिक विमर्श; उन सब विमर्शों के मानक यूरोपीय हैं।
विमर्श क्या करता है ? वह समग्रता को तोड़ता है। वह एक-से तथ्य जुटाता है। फिर घोषणा करता है कि फलाँ कवि में फलाँ तत्त्व की अल्पता अथवा आधिक्य है। मनुष्य में समग्रता मिलेगी, तो वह दलित शब्द को चीन्हेगा। प्रकृति में समग्रता है, इसलिए विमर्श स्त्री को पृथक करेगा। विमर्श संवलित के विरुद्ध छिद्रान्वेषण है। विमर्श काव्य में एजेंडा सेट करने का कारक है।
वाल्मीकि की समग्र रामायण के राम अलग दिख रहे, विवादित श्लोक के राम अलग। क्योंकि विमर्श ने यह श्लोक समग्र काव्य से अलग किया और समाज के एक वर्ग की कसौटी पर रख दिया। क्यों आशा की जाए कि परिणाम पक्षपाती न होंगे।
क्या सीता ही स्त्री हैं, कौशल्या, कैकयी स्त्री नहीं; जिनके प्रति राम का व्यवहार अतीव आदरयुक्त है। यदि वे स्त्री हैं तो उनके प्रति राम की व्यावहारिकी को विमर्श में स्थान क्यों नहीं ? उदाहरण और भी हैं, लेकिन विषय लम्बा खींच जाएगा।
हमारे पास काव्यशास्त्र में भरतमुनि, भामह, डंडी से लेकर विश्वनाथ, जगन्नाथ एवं मधुसूदन सरस्वती प्रभृति आचार्यों की विपुल पूँजी है, किन्तु हमें वह ग्राह्य नहीं। हमें दृष्टि पश्चिम से लेनी है और समझना भारतीय समाज को है – यह कितना घातक और असंगत उपक्रम है।
दो बातें और …
१. गीताप्रेस गोरखपुर की वाल्मीकि रामायण संस्कृत से अनूदित ग्रंथ है; वह किसी आचार्य की टीका नहीं। अतः उसमें अभिधा ( शब्दार्थ ) ही मिल सकेगी।
२. विकास जी वाल्मीकि रामायण को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि तुलसी से कहीं अधिक प्रगतिशील हैं आर्ष-कवि वाल्मीकि। यह अलग बात कि यह यूरोपीय काव्य-मानकों से सिद्ध नहीं हो सकेगा।
जय सियाराम।।
