सर्वेश तिवारी श्रीमुख : महाभारत, नालंदा.. व्हाट्सएप पर पढा जाने वाला इतिहास ऐसा ही होता है…
टेलीविजन धारावाहिकों में मुझे ‘महाभारत’ प्रिय है। बी आर चोपड़ा वाला धारावाहिक देखता रहता हूँ, सो फेसबुक या यूट्यूब पर उसी तरह के रील आते रहते हैं। इसी क्रम में एक धारावाहिक ‘सूर्यपुत्र कर्ण’ के रील आने लगे फेसबुक पर, तो थोड़ा वह भी देख लिया। उत्सुकता हुई तो फेसबुक पर ही उसके अनेकों भाग देख लिए।
जैसा कि परम्परा बन गयी है, किसी एक पात्र का महिमामंडन करने के लिए सारे अच्छे कार्यों में उसकी मुख्य भूमिका दिखा देना और बुरे कार्यों से उसे बचा लेना… पहले लेखकों कवियों ने यह किया, और अब धारावाहिकों, फिल्मों के निर्देशकों ने…
इस धारावाहिक में दर्जनों स्थान पर तथ्य बदले गए हैं, मूल कथा बदली गयी है। कर्ण पांडवों का अज्ञातवास भंग होने से बचाते हैं, कर्ण इंद्रप्रस्थ की राज्यसभा में शिशुपाल वध के समय भगवान श्रीकृष्ण की ओर से शस्त्र उठाते हैं, द्रुपद से युद्ध में भारी पड़ते हैं, इंद्रदेव से युद्ध, और भी दर्जनों उलूल जुलूल बातें… और अर्जुन तो जैसे उनके आगे शून्य… कितना हास्यास्पद है न?
कुछ अलग दिखाने के लिए मूल कथा का सत्यानाश कर देना, फिल्म वालों की आदत है। और यही कारण है कि वे जब भी कोई पौराणिक कथा ले कर आते हैं तो पहले ही लगने लगता है कि ये नाश ही करेंगे। आदिपुरुष में जो हुआ, उसी की संभावना रणबीर कपूर वाली फिल्म में भी है। खैर…
यह काम केवल सिनेमा में नहीं होता। साहित्य जगत का वामी धड़ा प्रारम्भ से ही इसी तरह का रायता फैलाता रहा है। पौराणिक इतिहास से लेकर आधुनिक इतिहास तक सबकुछ इतना दूषित कर दिया गया है, जिसे स्वच्छ करने में जाने कितने दशक लगेंगे।
पिछले दिनों फेसबुक पर ही एक भेद खुला कि पहली शिक्षिका के रूप में किसी फातिमा का नाम आना ऐसी ही विशुद्ध फेकैती थी। जिस दिलीप मंडल ने यह कथा गढ़ी थी, दस साल बाद उन्होंने ही भेद खोला कि फातिमा की कहानी पूरी तरह से गप्प है। लेकिन तबतक बात मण्डल साहब के हाथ से निकल चुकी थी। दर्जनों लोग दर्जनों तथ्य लेकर आ गए कि फातिमा सचमुच देश की पहली शिक्षिका थी। यही होता है…
ऐसा ही फर्जीवाड़ा कुछ फेसबुकिया कामरेडों ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाए जाने को लेकर गढ़ा। नांलदा के ध्वंस के लिए ब्राह्मणों को जिम्मेवार बता कर बख्तियार खिलजी को क्लीनचिट दे दी गयी। तब कामरेडों को विदेशी चन्दा मिलता ही इसीलिए था कि रायता पसारें… वे वही करते थे। अब वह खेमा टूट गया। कुछ इधर गए, कुछ उधर गए… उन्ही में से कोई एक भेद खोल रहा है तो खेमे के बुड्ढे शांति समझौते की पहल करने लगे हैं। सम्भव है कि दो चार दिन में दोनों पक्ष साथ बैठ कर मामला सुलटा लें और जय बख्तियार तय बख्तियार का नारा लगाते हुए गले मिल में।
व्हाट्सएप पर पढा जाने वाला इतिहास ऐसा ही होता है। उसपर भरोसा करने वाले ऐसे ही धूर्तों के जाल में फंस कर मूर्ख बनते हैं।
