प्रसिद्ध पातकी : विष्णु सहस्रनाम और गीता में कूर्मावतार को समर्पित श्लोक
मेरे एक मित्र हैं, उन्होंने बहुत पहले नौकरी के बारे में एक बहुत व्यावहारिक बात कही थी। उन्होंने कहा था कि मनुष्य नौकरी दो ही तरह से कर सकता है…कछुआ बनकर या केंचुआ बनकर। इसमें केंचुए की यह विवेशता होती है कि उसे जहां से काट दो, वह वहीं से चलने लगता है अर्थात रीढ़ हीन बनकर नौकरी करते रहो। आए दिन समझौते करते रहो। या फिर कछुए बन जाओ। नियमों पर चलो और अपनी पीठ को कच्छप पीठ बना लो। जितने प्रहार करो। कछुए पर कोई प्रभाव नहीं होगा। वह अविचलित रहें।
विद्वानों ने भगवान विष्णु के नामों को अलग अलग अवतारों से जोड़ा है। विष्णु सहस्रनाम के इस श्लोक का कुछ अंश भगवान के कूर्मवातार को समर्पित है।
जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोSमितविक्रम:।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोSन्तक:।।
इसमें भगवान का एक नाम आता है ‘अम्भोनिधि’। जल जिनकी निधि हो, ऐसे भगवान हैं कच्छप भगवान। जल का एक गुण होता है कि यह सदैव अपने केंद्र की तरफ भागता है और इसका आकार पात्र के अनुरूप बदलता रहता है। भगवान वासुदेव ने महाभारत युद्ध के दौरान कुरुक्षेत्र में अपने प्रिय मित्र सह शिष्य को जो गीता सुनायी है, उसमें उन्होंने कर्मयोगी की तुलना कच्छप से की है :-
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
भगवान ने कहा कि जिस प्रकार से कछुआ अपनी दशों इंद्रियों को समेट कर अपने खोल के अंदर कर लेता है वैसे ही जब कर्मयोगी इंद्रियों को विषयों से समेट लेता है तो उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित अर्थात स्थिर हो जाती है।
बड़ी दिलचस्प बात है कि महर्षि पाराशर ने अपने होरा शास्त्र में नवग्रहों को भगवान के नव अवतार जोड़ा है। इसमें शनि देव में भगवान कच्छप के अंश प्रधान हैं। अब देखिए शनि ग्रह ज्योतिष में कर्मकारक माना गया है। और यदि आपको इस संसार में भगवान द्वारा बताये गये कर्मयोग के पथ पर चलना है तो आपको कच्छप का अनुसरण करना ही पड़ेगा। जिस प्रकार कछुआ अपनी इंद्रियों को अपने भीतर समेट कर अपने केंद्र से जुड़ा रहता है वैसे ही भगवान अंभोनिधि हैं । अपने केंद्र से सदैव जुड़े हुए।
वैदिक कर्मकाण्ड में जल को बहुत ही पवित्र माना जाता है। संध्योपासन की शुरुआत ही जल से आचमन और आसनशुद्ध के साथ होती है। जल पवित्र इसीलिए है क्योंकि वह भगवान की निधि होने के कारण भगवान के समान ही पवित्र है। इसीलिए हर धार्मिकर्मकांड में यह मंत्र अवश्य दोहराया जाता है
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
पुण्डरीकाक्ष भगवान के स्मरण मात्र से बाहर और भीतर इसलिए शुचिता आ जाती है क्योंकि वे ‘‘अम्भोनिधि’’ जो हैं।
एकादशी की राम राम
