डॉ. भूपेन्द्र सिंह : वीर सावरकर का हिंदुत्व.. इन दोनों दोषों से दूर है…
मैंने एक बार लिखा था कि अपने अपने महापुरुषों को 8-8 फीट का बताकर उनका मजाक न बनवाईये।
तब लोगों ने बहुत सीरियस होकर कमेंट किया था कि पहले लोग दस दस फीट के होते थे। यहाँ उनके पहले का मतलब था बमुश्किल चार पाँच सौ वर्ष पूर्व। ये सभी लोग हिंदू थे। तो बात यह है कि मूर्खता का विभाजन हिंदू और मुसलमान के आधार पर नहीं हुआ है। समाज के सभी वर्गों में मूर्ख बहुसंख्यक हैं। लेकिन अल्पसंख्यकों में एक व्यवस्था है जो इन मूर्खताओं के बावजूद उनको राजनीतिक रूप से जाग्रत एवं सशक्त रखती है। हिंदुओं में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। जो कुछ थोड़ी बहुत व्यवस्था है वह कुछ एक संगठनों के पास है। वह कितने दिन तक इनको संभाल पायेंगी, यह एक बड़ा प्रश्न है।
राम मंदिर बना था या नहीं, इससे इनको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था, वह कहीं और जाकर आशीर्वाद ले ले रहे थे। अब बन गया तो वहाँ आशीर्वाद ले रहे हैं। इनके लिए राम मंदिर भी रोज़गार और अपने व्यक्तिगत जीवन में उन्नति के लिए आशीर्वाद पाने का एक रास्ता भर है। हिंदुओं के लिए यह घटना उनके सांस्कृतिक पुनरुत्थान की घटना नहीं बन पायी।
इसके पीछे का कारण भी स्पष्ट है, और वह ये कि प्रथम तो हिंदू पूरी तरह से लाभ आधारित दृष्टि पर चलता है और दूसरा यह कि हिंदू के नाम पर धूर्ततायुक्त जन्म आधारित जाति व्यवस्था और मूर्खतायुक्त वज्रयानी पाखंड ने इसे गंदा कर डाला। इसीलिए मेरा स्पष्ट मत है कि वीर सावरकर ने जिस हिंदुत्व की व्याख्या की जो कि इन दोनों दोषों से दूर है, जो समस्त हिंदुओं में समानता का भाव जाग्रत करता है और पाखंड से विज्ञान की तरफ़ ले जाता है, उसकी बार बार स्पष्टता से व्याख्या आवश्यक है। इसके बिना हिंदुओं का भविष्य के मैदान में टिके रहना मुश्किल होगा।