विवेक शर्मा : “मार पड़ेगी वाली फिलिंग फिर से आ जाए” ..मार से तो अच्छे अच्छे सुधर जाते हैं.. भय बिनु होय न प्रीति
स्कूलों में हल्की सज़ा पर रोक सही या गलत? सोशल मीडिया में बहस तेज, अभिभावक दो खेमों में बंटे।

गीता का जन्म युद्ध के मैदान में दो सेनाओं के बीच हुआ।
जीवन की श्रेष्ठतम बातें भारी तनाव और दबाव में ही होती हैं। अगर आप दिमाग को शांत और मन को स्थिर रखने की कोशिश करें तो सबसे बुरी परिस्थितियों में भी आप अपने लिए कुछ बहुत बेहतरीन निकाल पाएंगे। ये श्रीकृष्ण सिखाते हैं।


कोरबा। शहर के स्कूलों में बच्चों को हल्की-फुल्की मार या दंड देने पर लगी रोक को लेकर बीते कुछ दिनों से माता-पिता के बीच जमकर चर्चा हो रही है। सोशल मीडिया से लेकर मोहल्लों की बैठकों तक, हर जगह लोग अपनी-अपनी राय खुलकर रख रहे हैं।
पुलिस विभाग में अपनी विभागीय उपलब्धियों के साथ ही सामाजिक विषयों पर खुलकर अपनी बात रखने वाले कोरबा में लंबे अरसे तक पदस्थ रहे वर्तमान में बिलासपुर DSP विवेक शर्मा का एक फेसबुक पोस्ट चर्चा में है जिसमें उन्होंने कहा है कि – “कई दिनों से दिमाग में एक सवाल चल रहा है..क्या स्कूल में हल्की फुल्की मार और सजा पर प्रतिबंध लगाना सही है?”
दण्ड से गुणात्मक सुधार के सकारात्मक परिणाम पर उन्होंने आगे लिखा है कि -“मेरी राय में स्कूल्स को बच्चों को दंड देने की छूट मिलनी ही चाहिए, ताकि अनुशासन और ‘पढ़ाई करना है, होमवर्क करना है,नहीं तो स्कूल में मार पड़ेगी ‘ वाली फिलिंग फिर से आ जाए।
फोरम सभी की राय के लिए ओपन है..”
कुछ अभिभावक खुले तौर पर कह रहे हैं कि “थोड़ी बहुत सख्ती से बच्चे सुधरते हैं”, जबकि दूसरी ओर कई लोग मानते हैं कि आज के बच्चों के लिए शारीरिक दंड बिल्कुल उपयुक्त नहीं।
कॉमेंट में अधिकांश लोगों का कहना है, “हमारे समय में मास्टर जी की एक डांट ही काफी थी। कभी-कभार मार भी पड़ जाती थी तो हम पढ़ाई में ध्यान देने लगते थे। अब बच्चे ज्यादा छूट पा रहे हैं।”
वहीं कॉमेंट में एक वर्ग इससे असहमति जताता है कि
“आज बच्चों पर पढ़ाई, प्रतियोगिता और सोशल मीडिया का दबाव बहुत ज्यादा है। मार-पीट से बच्चे डरते हैं, पर सीखते नहीं। बेहतर है कि उन्हें सकारात्मक तरीके से समझाया जाए।”
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए शैलेंद्र ठाकुर ने लिखा है कि-
“बाल संरक्षण के नाम पर लोग रोना-धोना शुरू कर देते हैं, वरना शिक्षक की छड़ी ही समाज को सही दिशा दिखा सकती है।
वहीं कुलदीप शर्मा कहतें हैं – “”विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीति।
बिलकुल शिक्षक को उनकी छड़ी लौटा दे, शिक्षक पुनः अनुशासन लौटा देंगे।”

नंदकिशोर साहू ने पोस्ट की सार्थकता की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि -“वाह sir ji ,,, आपने यह विचार रख के एक बार फिर से लोगों का दिल जीतने में कामयाब रहे,,, शानदार विचार है ,,, सजा का मापदंड सर्वसम्मति से माता पिता पालकों के द्वारा स्वयं तय करके इसका पालन करना चाहिए,, आज हर दिशा में जो हिंसा और बिना अनुशासित के लोग जो दिख रहे अधिकतर लोग अब उनमें से हैं जो पहले जब क्लास 1 में रहे होंगे और नियम बनाया गया कि शिक्षक किसी भी विद्यार्थी को डांट नहीं सकते मार नहीं सकते ,,, अब इस नियम पर फिर से पुनर्विचार करना चाहिए।”
सुनील विधवानी इस पर कहते हैं -“”सही बात है मार से तो अच्छे अच्छे सुधर जाते हैं चाहे वो मार किसी की भी हो माता पिता गुरुजनों या पुलिस की”
बच्चों के अधिकारों से जुड़े स्थानीय संगठनों का मानना है कि हल्की सज़ा भी कई बार बच्चे के मन पर बुरा असर छोड़ती है, जिसका असर लंबे समय तक दिखता है। वे चाहते हैं कि स्कूलों में काउंसलिंग और व्यवहार-सुधार कार्यक्रम बढ़ाए जाएँ।
हालाँकि कॉमेंट के कुछ हिस्सों में यह भी चर्चा है कि “स्कूलों में सख्ती कम होने से अनुशासन बिगड़ा है”। कई अभिभावक बताते हैं कि बच्चे होमवर्क नहीं करने पर कोई डर महसूस नहीं करते, जिससे पढ़ाई का स्तर नीचे जा रहा है।
कुल मिलाकर, विषय अभी शहर में गर्म है।
एक तरफ वे लोग खड़े हैं जो पुरानी सख्ती की वापसी चाहते हैं, दूसरी ओर वे जो बच्चों की मानसिक सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं।
फिलहाल बहस जारी है और समाधान समाज की सामूहिक समझ से ही निकल सकता है।

