परख सक्सेना : 50 वर्षो की मेहनत एक दिन मे कैसे खत्म की जाती है वह लालकृष्ण आडवाणी सीखा सकते है..

1984 मे बीजेपी को सिर्फ दो सीटें मिली थी, वाजपेयी ने RSS के दबाव मे इस्तीफा दिया और कमान आडवाणी को मिली। राम मंदिर आंदोलन के रथ पर सवार आडवाणी ने बीजेपी को 5 साल मे सीधे 85 सीटों पर पहुँचा दिया। 1991 मे बीजेपी 100 के पार हुई और आज तक उससे नीचे नहीं गयी।

Veerchhattisgarh

 

2 सीटों वाली पार्टी 1991 से आज तक नंबर एक और दो की पॉजिशन मे बनी रहती है, मगर ये लेख आडवाणी की प्रशस्ति का नहीं अपितु राजनीतिक पतन का है। आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन सके क्योंकि बीजेपी को उन दिनों गठबंधन की जरूरत थी और इस परिभाषा मे वाजपेयी फिट बैठे।

2002 मे आडवाणी को उपप्रधानमंत्री जरूर घोषित किया गया मगऱ 2004 मे बीजेपी सत्ता से बाहर हो गयी। सुधीन्द्र कुलकर्णी उन दिनों आडवाणी के राजनीतिक सलाहकर थे, कुलकर्णी एक घोषित वामपंथी थे और बाद मे बीजेपी मे शामिल हुए थे। कहा जाता है कि कुलकर्णी ने ही आडवाणी को सलाह दी थी कि सेक्युलर छवि बनाये।

जून 2005 मे आडवाणी पाकिस्तान गए, सिंध यू भी उनका पैतृक स्थान था और पाकिस्तान के पूरे मीडिया के सामने वे जिन्ना की मजार पर पहुंचे तथा फुट फुटकर रोने लगे। पाकिस्तानी मीडिया खुद स्तब्ध था, उसने सवाल किये तो आडवाणी ने कहा यहाँ सेक्युलरीज्म का शूरमा सो रहा है।

बस इतना कहना था कि आडवाणी ने जो कुछ 1950 से 2005 के बीच कमाया वो सब एक दिन मे स्वाहा हो गया। RSS ने जमकर विरोध किया, बीजेपी के अंदर आडवाणी घिर गए और अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन प्रधानमंत्री बनने की जिद फिर भी नहीं छोड़ी, 2009 के चुनाव आ गए।

जलती मुंबई, आतंकी हमले और कमजोर सरकार के बावजूद मनमोहन सिंह अपनी सरकार बचाने मे सफल हो गए और बीजेपी का वनवास 5 साल और आगे बढ़ गया। 2009 के बाद RSS की कमान मोहन भागवत के हाथ मे आयी और उन्होंने कई बड़े फैसले लिए। मोहन भागवत ने सबसे पहले बीजेपी को आडवाणी से ही मुक्त किया और पूरी लॉबी तोड़ी।

2010 तक गुजरात वायब्रेन्ट मोड पर आ चुका था, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हीरो बनकर उभर रहे थे। 2011 मे सबसे पहले राज ठाकरे ने कहा था कि मोदी अब प्रधानमंत्री बनने चाहिए। RSS भी ट्रेंड देख रहा था, मोदी आडवाणी के ही राजनीतिक शिष्य थे और अब उन्हें अपने गुरु को लंगड़ी लगानी थी।

बिल्कुल यही हुआ, आडवाणी ने लाख प्रयास किये कि वे ही उम्मीदवार रहे मगर सब असफल हुए, फिर उन्होंने शिवराज को आगे करने का प्रयास किया मगर संघ ने वीटो लगा दिया और अंततः नरेंद्र मोदी के नाम पर मोहर लगी।

आज नेपथ्य मे बैठे आडवाणी सोचते होंगे, खुद को कोसते होंगे कि आखिर चूक कहाँ हुई? ये तो संघ के संस्कार है कि नरेंद्र मोदी आज भी बगल मे बैठे है, यदि कोई और पार्टी होती तो अब तक नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की तरह भुला दिये गए होते।

खुद प्रधानमंत्री बनने की स्थिति मे वाजपेयी को आगे करना पड़ा, ज़ब खुद लड़े तो जिन्ना का भूत खा गया और अंत मे ज़ब लगा कि अब तो जीत पक्की है तो खुद उन्ही के राजनीतिक शिष्य ने उन्हें पराजित किया।

राजनीति के उलटफेर ऐसे ही होते है, बाकि निजकर्मो का फल जो है सो है ही। राम मंदिर और कश्मीर जैसे मुद्दे देने और बीजेपी को बीजेपी बनाने वाले लालकृष्ण आडवाणी को जन्मदिन की शुभकामनायें।

✍️परख सक्सेना✍️
https://t.me/aryabhumi

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *