अमित सिंघल : छात्र नेतागिरी.. “लाखो के सावन” की कोई वैल्यू नहीं रही, तो आप सपने किस आइडियल संसार के दिखाओगे?

मैथिली ठाकुर को बिहार चुनाव के लिए भाजपा का टिकट मिलने के मित्र सुमंत कबीर ने एक पोस्ट में लिखा कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्रों के एक व्हाट्सअप ग्रुप में AU छात्रसंघ में उपाध्यक्ष रहे मित्र ने लिखा, “… राजनीति में 16 साल हो गए पर अभी तक कोई मंजिल नहीं मिली।”

 

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आगे लिखा कि लालू, नीतीश, ममता और नरेंद्र मोदी वह आखिरी पीढ़ी है, जो छात्र राजनीति से निकली। या किसी आंदोलन की उपज है।

दूसरे शब्दों में, अगर छात्र चुनाव लड़ने का लक्ष्य प्रादेशिक या राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करना है, तो आज के युग में इस लक्ष्य की प्राप्ति दुरूह एवं दुर्लभ है।

एक तो वैसे भी ऐसा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है जिसपे छात्रों को संगठित किया जा सके, आंदोलन लांच किया जा सके। मंहगाई कण्ट्रोल में है; निजी क्षेत्र में सरकारी की तुलना में कहीं अधिक संगठित नौकरी है; स्वरोजगार के अनेक अवसर उपलब्ध है।

फिर, मोदी सरकार छात्रों या किसी अन्य विशेष समूह को बड़ा आंदोलन करने से पहले उन्हें मना लेगी, चाहे इसके लिए दो कदम पीछे ही क्यों ना हटना पड़े।

द्वितीय, बेरोजगारी के राजनीतिक शोर के बावजूद यह एक तथ्य है कि सरकारी नौकरी के बाहर नए रोजगारो की कमी नहीं है।

80 एवं 90 के दशक में छात्रों के लिए एक साइकिल खरीदना भी कठिन था. आज सब बाइक लिए बैठे है। बाइक, मोबाईल, इंटरनेट एवं डिजिटल पेमेंट ने एक ऐसी व्यवस्था खड़ी कर दी है जिसमे छात्र पढ़ने के साथ-साथ स्वरोजगार, जैसे कि ऐप पर आधारित टैक्सी एवं डिलीवरी, यूट्यूब एवं सोशल मीडिया से कमाई, इंटरनेट के द्वारा फ्रीलांसिंग कर सकता है।

कुछ नहीं तो, यूट्यूब एवं रील्स पर वीडियो, सीरियल एवं फिल्मे देख सकता है। अब आंदोलन में कौन समय बर्बाद करे।

तृतीय, एक समय “नेतागिरी” को भी एक प्रोफेशन माना जाता था। लघु स्तर पर नेतागिरी से कमाई एवं भौकाल दोनों का जुगाड़ हो जाता था।

लेकिन ऐसी नेतागिरी किसी व्यथा या grievance पर चलती थी जिसे किसी उच्च विचारधारा से जोड़कर सम्मान का आवरण पहना दिया जाता था।

उदाहरण के लिए, मार्क्सवाद या नक्सलवाद का। पहले साहूकार, फिर बाउजी, लाला सुखीराम, बाद में टाटा-बिड़ला, अब अडानी-अम्बानी शोषण करते है और यह लोग सरकार के प्रश्रय में फलते-फूलते है।

JNU में वियतनाम के नेता, हो ची मिन, के नाम पर नारे लगाए जाते थे।

हो ची मिन,
हो ची मिन,
वी शैल फाइट,
वी शैल विन !

लेनिन-स्टालिन आदर्श व्यक्ति थे। नक्सली एवं आतंकी हत्यारो को Gandhi with gun की पदवी से सम्मानित किया जाता था। किसानो के हितो के विरूद्ध (नर्मदा बाँध) धरना देने वाली मेधा पटकर, या फिर भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वाले, “चिकेन नेक” को तोड़ने वालो को बुद्धिपिशाचो, आमिर खान एवं दीपिका पादुकोणे का समर्थन मिल जाता था।

Grievance या आक्रोश को मैनुफैक्चर करना आसान होता था। और फिर उस “मैनुफक्चरड” उत्पाद से नेतागिरी चल जाती थी।

सिंगूर में टाटा नैनो फैक्ट्री को किसान-विरोधी का ठप्पा लगाकर ममता ने अपनी राजनीती चमका ली थी। या फिर कुछ अन्य लोग कानपुर, मुंबई, लुधियाना इत्यादि मैनुफैक्चरिंग सेंटर से कपड़ा, होज़री, खेल उपकरण, साइकिल, घी-तेल जैसे उद्यमों को निकाल कर राजनैतिक सीढ़िया चढ़ गए।

लेकिन इंटरनेट एवं सोशल मीडिया के आगमन से सबकी पोल-पट्टी खुल गयी। ऐसे तत्वों को, इनके मूल स्वरुप में, अब कांग्रेस के सिवा कहीं और समर्थन नहीं है।

अब यह संभव नहीं है ।

आज की पीढ़ी के पास व्यथा या grievance पर आधारित आक्रोश एवं आंदोलन के लिए समय नहीं है।

रोटी, कपड़ा और मकान, साथ में डेटा, प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

आम छात्र-छात्रा के पैर को सुशोभित करते जूते की वैल्यू शर्ट से अधिक है।

आज के छात्र-छात्राऐ (म्हारी छोरिया छोरो से कम है क्या?) “दो टकिये” की नौकरी (अर्थात, रील एवं यूट्यूब) के लिए “लाखो का सावन” छोड़ने को तैयार है।

जब “लाखो के सावन” की कोई वैल्यू नहीं रही, तो आप सपने किस आइडियल संसार के दिखाओगे?

अतः छात्र नेतागिरी को एक कैरियर के रूप में देखना बंद कीजिए।

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