देवांशु झा : धर्मदण्ड
इस दण्ड पर बहुत कुछ लिखा जा रहा। लिखा जाना भी परमावश्यक है। जहां धर्मदण्ड को नेहरू की छड़ी बतलाते हुए संग्रहालय में सजा कर रख दिया जाय-जहां वह क्षण भर देखने और भूल जाने की वस्तु बना दी जाय, वहां उसकी मर्यादा का पुनर्स्थापन परमावश्यक है। किन्तु, मैं एक साधारण सा प्रश्न पूछता हूं। क्या दण्ड या छड़ी का मूल अर्थ हम जानते हैं?हमारे गुरु दण्ड क्यों रखते थे? शंकराचार्य के हाथ में दण्ड क्यों शोभित है? संन्यासी दण्ड लेकर क्यों चलते हैं? राजा के हाथ में दण्ड क्यों शोभायमान होता था?
क्या गुरुजी दण्ड इसलिए रखते थे कि उन्हें अपने छात्रों को दण्डित करना होता था?क्या ताड़ना ही उसका मूल था? क्या वह मर्यादा, कर्तव्य-बोध अथवा धर्माचरण सिखाने के लिए नहीं होता था? शंकराचार्य दण्ड लेकर क्यों चलते हैं? दण्डित करने के लिए? राजा जो अनेकानेक शस्त्रास्त्रों से सज्ज होते थे, उन्हें दण्ड रखने की क्या आवश्यकता थी? दण्ड एक प्रतीक है। वह यात्रा पर कठिन पथ को पार करने का अवलम्ब तो है किन्तु प्रथमत: धर्म स्थापना का चिह्न है। दण्ड को आचार्य अथवा राजा से विलगाया नहीं जा सकता है। वह तो उनकी उपस्थिति के साथ एकमेक है। उसे आप उनकी अन्य और अनिवार्य भुजा या अंग मान सकते हैं।
इस दण्ड पर चोल साम्राज्य का एकाधिकार नहीं है। यह भारतीय सभ्यता में प्रतीकात्मक है। जैसे राम के हाथ में धनुष है। जैसे कृष्ण के पास सुदर्शन। जैसे ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के हाथ में ब्रह्मदण्ड, जो विश्वामित्र के सभी दिव्यास्त्रों को निस्तेज कर गया,वैसे ही धर्मराज्य के स्थापकों के हाथ में दण्ड। वृषभ उसकी शोभा है। उसका सिरमौर। वह सात्विक शक्ति है। वह अतुल बल का परिचायक भी है। देवाधिदेव का वाहन तो है ही। उनके हाथ में शोभित त्रिशूल भी धर्मदण्ड ही है। हम अपनी ही संस्कृति से विस्मृत हैं। नेहरू जी जैसे महापुरुष का धन्यवाद करना चाहिए! उन्होंने धर्मदण्ड को बुढ़ापे की छड़ी में परिणत कर दिया। और हमने मान लिया कि वह नेहरू की छड़ी थी।
बड़ा ही विचित्र सा समय है। यह दण्ड जो पिछले पचहत्तर वर्षों से संग्रहालय में चचा की छड़ी बनकर धूल फांक रहा था, आज अचानक भासित हो गया। भारतीय सभ्यता संस्कृति में धर्मराज्य का प्रतीक चिह्न बनकर प्रकट हो गया। मोदीराज में ही हुआ। मुल्लामोदी क्यों? लिखने को तो बहुत कुछ है लेकिन समझना अधिक महत्वपूर्ण है। जो लोग इस परिवर्तन को देखना नहीं चाहते, उन्हें कैसे दिखाया जाय? परन्तु देखना तो होगा। हजार वर्ष के इतिहास में ऐसा कालखंड नहीं आया।उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक यह भूमि जागने लगी है। दुर्भाग्य है कि हम जगाने वाले को गाली देते हैं।

