योगी अनुराग : मुद्राराक्षस का अक्षय-स्तंभ
आरंभिक मौर्यकालीन राजनीति के भास्करशिल्प संस्कृत-नाट्य “मुद्राराक्षस” की रचना, “विशाखदत्त” नामक एक “जीनियस” नाट्यकार ने की थी। (“विशाखदत्त” एक प्रबल ज्योतिषी और गणितज्ञ भी थे, उनके इस गुण पर कभी पृथक् से लिखा जाएगा!)
कहना न होगा कि एकाग्र चित्त के मनुष्य को “दत्तचित्त” कहने की परम्परा का आरंभ “विशाखदत्त” के ही नाम पर हुआ था। चूँकि जैसी एकाग्रता और कुशलता का परिचय नाट्य की एक एक पंक्ति में “विशाखदत्त” ने दिया है, वो नि:संदेह समूचे संस्कृत नाट्य-इतिहास में नाट्यकारों के लिए भारी चुनौती बनकर खड़ा रहा होगा!

संभवतया इसी आदर्श ने भविष्य में श्रेष्ठ नाट्यों के आगमन के द्वार खोले होंगे। चुनौती ही श्रेष्ठ न हो, तो उत्पाद भी दोयम दर्जे का रह जाता है। “विशाखदत्त” की चुनौती, संस्कृत नाट्य का सुनहला भविष्य लेकर आई थी।
ख़ैर। अब नाट्य “मुद्राराक्षस” के कलेवर की ओर चलते हैं!
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किसी भी रचना को जानने से पहले उसके “शीर्षक” को जानना चाहिए। और “शीर्षक” का विचार उसी कालखंड के भावों से करना चाहिए, जिस कालखंड में रचना की गई थी। चूँकि देशकाल के अनुसार भावों का परिवर्तन प्रकृति का अनुपम गुण है।
यदि वैसा न किया गया, तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। जैसे कि “मुद्राराक्षस” शब्द की व्याख्या आज के भावों में की जाए, तो इसका सीधा सीधा तात्पर्य “धनपशु” हो जाएगा। अथवा कोई ऐसा दानव, जो धन-धान्य के प्रति आसक्त हो।
किंतु “विशाखदत्त” के नाट्य-शीर्षक का दूर दूर तक “धनपशु” जैसे शब्द से कोई सामंजस्य न था। बल्कि उनका विचार तो “राक्षस” यानी कि तत्कालीन मगध के अमात्य की “मुद्रा” यानी कि अंगूठी में लगे मुहर-चिन्ह से था।
अर्थात् ये पूरी कथा आमत्य राक्षस की अंगूठी और उनके विशेष मुहर-चिन्ह के इर्द-गिर्द घूमती है!
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नाट्य के मुख्यपात्रों की बात करें तो नाट्य का खलनायक अमात्य राक्षस है, तमाम खल पात्र उसके हाथों की कठपुतलियाँ हैं। नायक के साथ उसका संघर्ष आद्यांत इतना विकट है कि इसकी तुलना कृष्ण-शकुनि की “डाईकॉटमी” से की जा सकती है।
“मुद्राराक्षस का नायक कौन?” जैसे प्रश्न पर तमाम विद्वानों को एकदूजे की धोती खींचते देखा गया है। संस्कृत महाविद्यालयों में इस प्रश्न पर वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ होती हैं। और जीतने की पचास प्रतिशत ज़मानत तो यही है कि आप नायक के तौर पर महामहिम चाणक्य को चुन लें।
ध्यातव्य हो कि महामहिम की आज तलक क़ायम रहस्यमयी और कूटनीतिज्ञ छवि के निर्माण में उतना योगदान “अर्थशास्त्र” का नहीं है, जितना कि “मुद्राराक्षस” का है। सार्वभौमिक रूप से यही माना जाता रहा है कि नाट्य “मुद्राराक्षस” के नायक पद हेतु सर्वाधिक प्रबल दावेदारी महामहिम की ही है।
और नायिका? नायिका का कोई स्थान ही नहीं। कूटनीतिज्ञ लोग प्रेम नहीं करते, किसी सहचरी का नैकट्य नहीं साधते। चूँकि उनके शब्दकोश में “प्रेम” शब्द का तात्पर्य “छल-कपट का आमन्त्रण” होता है। सो, उनके जीवन में कोई नायिका नहीं होती!
नाट्य “मुद्राराक्षस” के कुलजमा उनतीस पात्रों में, मात्र एक स्त्री-पात्र है, जिसका प्रवेश सप्तम अंक में जाकर होता है। उसका कार्य बस इतना है कि वो अपने पति को मिले मृत्युदंड पर रुदन करे। दैट्स इट! शेष किसी नारी पात्र की कोई आवश्यकता नहीं।
ऐसे में नाट्य की नायिका कौन? कूटनीतिज्ञ लोग केवल अपनी बुद्धि से प्रेम करते हैं, उनकी चंचला-चपला बुद्धि। सो, नाट्य की नायिका हैं, महामहिम की तीक्ष्ण बुद्धि। वैसी मंत्रमुग्ध संकल्पना को रचने वाले “विशाखदत्त” को कैसे न नाट्य-इतिहास का “जीनियस” कह दूँ।
वैसे बुद्धि के स्त्री-रूप होने की रोचक संकल्पना का भी अपना एक इतिहास है, उसपर कभी पृथक् से लिखूँगा। फ़िलहाल, “मुद्राराक्षस” के कथानक पर बात हो।
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नाट्य का प्रथम दृश्य है कि महामहिम चाणक्य अपने खंडहर में बैठे हैं। वे अपने उन तमाम कार्यों के बारे में बता रहे हैं, जो उन्होंने हाल ही में सम्पादित किए हैं। जैसे कि नंदवंश का उच्छेद और अमात्य “राक्षस” हेतु बनाए गए जाल के पहले फंदे की पहली गाँठ।
और इसके पश्चात् आरंभ होता है, मनुष्यों के पशुओं की भाँति आखेट का सिलसिला!
महामहिम का सबसे पहला आखेट पर्वतक बनता है। पर्वतक उस समय तक “राक्षस” का सहयोगी न था, किंतु इस बात की पूरी आशा थी कि उद्विग्न चित्त का ये मनुष्य एक न एक दिन राक्षस का ही सहयोगी बनेगा। सो, मारा गया।
उसकी हत्यारिन विषकन्या राक्षस की थी। सो, हत्या का आरोप भी राक्षस पर ही लगा!
मगध के वनों में भटक रहे पर्वतक के पुत्र मलयकेतु को भी राक्षस का भय दिखा कर सदा-सर्वदा के लिए अज्ञातवास पर भेज दिया गया। योजनाबद्ध तरीक़े से भय की प्रेरणा देने के लिए महामहिम ने एक योग्य गुप्तचर को चुना था।
राक्षस योजना बनाता है कि राजशिल्पी को अपने साथ मिला कर एक भवन का कच्चा तोरण बनाया जाए। ज्यों हीकोई मनुष्य उस द्वार से निकले, तोरण अपने पूरे वेग से आ गिरे। वस्तुत: उस द्वार से महाराज चंद्रगुप्त की निकासी थी।
महामहिम इस पूरी योजना को ताड़ गए। उन्होंने छलविद्या का प्रयोग कर इस द्वार से पर्वतक के अनुज वैरोचक को निकाल दिया। इस तरह एक और काँटा दूर हुआ।
राक्षस अगली योजना बनाता है कि महाराज का स्वास्थ्य ख़राब हो, तो वैद्य के वेश में किसी को भेजा जाए और औषधि में विष मिला कर मगध को पूर्ववत् नंदवंश के अधिकार तले लाया जाए। किंतु महामहिम उस औषधि को पीने के लिए वैद्य को ही विवश करते हैं।
इस तरह राक्षस के एक और सहयोगी की हत्या राक्षस के ही हाथों हो जाती है!
इसप्रकार, नाट्य तो अंक दर अंक प्रगति करता ही है। एक सीमित दायरे के फ़ेसबुक लेख में पूरे नाट्य को कह पाना, कमकसम मुझ जैसे क्षुद्र लेखक के लिए तो काठिन कार्य है।
सो, यहाँ केवल नाट्य-विधा के पंचतत्वों पर चर्चा होगी।
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जिस प्रकार मानव देह पंचतत्वों से मिलकर बनी है। ठीक वैसे ही, प्रत्येक नाट्य भी पंचतत्वों का ही समायोजन होता है। ये तत्व होते हैं : आरंभ, यत्न, प्रत्याशा, नियति और प्राप्ति।
नाट्य के “आरंभ” यही है कि महामहिम अपने खंडहर से पाठकों को स्व-प्रशस्ति दे रहे हैं। वे तमाम पाठकों को बताना चाहते हैं कि वे स्वयं कितने बड़े कूटनीतिज्ञ हैं। उन्होंने अमात्य द्वारा चंद्रगुप्त की हत्या हेतु भेजी गई विषकन्या को पर्वतक के ख़ेमे में पहुँचा कर पूरे भारतवर्ष में ज़ाहिर कर दिया है कि पर्वतक की हत्या “राक्षस” ने करवाई।
तत्पश्चात् आरंभ होते हैं, नाट्य की अभीष्ट प्राप्ति के “यत्न”। वस्तुस्थिति ये है कि नंदवंश का उच्छेद हो चुका है, किंतु मगध का निर्वासित अमात्य “राक्षस” अब भी मगध में ही कहीं छिपा बैठा है और चंद्रगुप्त की हत्या की योजनाएँ बना रहा है।
“विशाखदत्त” का खलनायक कैसा नैतिक है कि हत्या की योजनाओं में महामहिम की हत्या का विचार नहीं करता। भला ब्रह्महत्या का पाप किस विधि ओढ़ता? इसी नैतिकता का प्रभाव है कि महामहिम “राक्षस” का हृदय परिवर्तन कर उसे चंद्रगुप्त का अमात्य बनाना चाहते हैं।
इस नाट्य का अंतिम लक्ष्य यही है कि अमात्य “राक्षस” की निष्ठा चंद्रगुप्त के पक्ष में परिवर्तित हो जाए! पूरा नाट्य इसी अभीष्ट उद्देश्य हेतु होने वाले यत्नों का प्रतिफल है। महामहिम चाहते तो एक पल में “राक्षस” के प्राण ले लेते। किंतु वे उसकी बुद्धिमत्ता के प्रशंसक थे।
इसी कारण उन्होंने बारी बारी से “राक्षस” के तमाम खल साथियों का सफ़ाया किया। किंतु हर बार, अवसर होने पर भी, “राक्षस” को जीवित छोड़ दिया। इन्हीं सब परस्पर द्वन्दों-फंदों में नाट्य की कथा शनैः शनैः प्रगति करती है।
बहरहाल, बहरकैफ़।
कथा का मूल रहस्य, इस लेख के उपरांत भी रहस्य ही रह जाएगा कि किस भाँति महामहिम ने राक्षस को मगध में चिन्हित कर लिया!
न केवल चिन्हित किया बल्कि राज्य के अपराधी के विषय में राजा को सूचित नहीं किया। महामहिम ने उसे जीवित रखकर, योजना बनाने और उन्हें अनुप्रयोग करने की असूचित-सी स्वतंत्रता देकर, फंदा-दर-फंदा फँसा कर मौर्यों का अमात्य नियुक्त होने पर बाध्य किया।
कदाचित् ये जानना एक-एक पाठकमित्र के लिए रोचक होगा कि उक्त तमाम उपायों हेतु महामहिम चाणक्य ने कैसे कैसे विविध बौद्धिक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया। किंतु अंतत: राक्षस जैसे स्वामीभक्त सेवक की नंद-निष्ठा के गर्व को चूर-चूर कर ही दिया, उसे अपनी चंचला-चपला बुद्धि के समक्ष झुका ही दिया।
यों भी, महामहिम रहस्यमयी पुरुष थे, उन्हें आनंद मिलेगा कि उनका रहस्य, रहस्य ही रह गया!
इति।
