दयानंद पांडेय : रामायण मात्र महाकाव्य नहीं, परवरिश का सूत्र, मर्यादा और गरिमा का पाठ भी और समाज को सुगठित करने का सूत्रधार
पुरानी बात है कि जितने रावण मिले राम के वेश में। एक निर्मम सच है यह। पर पूर्ण सत्य नहीं।
इस बात को इस तरह भी समझ सकती हैं कि फिर रावण भी तो भिक्षुक बना , सीता के अपहरण के लिए। सोने का मृग भी भेजा छल-कपट के तहत । लेकिन सब कुछ के बावजूद भी सीता ने अगर लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होती तो क्या तब भी रावण , सीता का अपहरण कर पाता ?

तुलसी ने श्रीरामचरित मानस में स्त्री के साहस को भी एक इस अर्थ में दुस्साहस बताया है। आप तुलसी की चाहे जितनी निंदा कर लीजिए पर बात सही है।
इस रामकथा में एक प्रसंग आता है कि मंदोदरी , रावण के सीता पर आसक्ति से आजिज आ कर कहती है कि आप तो मायावी हैं l कोई भी रूप धर लेते हैं । तो क्यों नहीं राम का रूप धर कर सीता को प्राप्त कर लेते ?
रावण बताता है , मंदोदरी को कि यह भी कर के देख लिया है। राम का रूप धर कर जब गया तो सीता , बहन की तरह दिखने लगी l क्या करूँ?
तो यह राम का चरित्र है। रावण भी राम बनते ही राम की तरह सोचने , देखने लगता है।
प्रसंग एक यह भी है कि बहुत अनुनय विनय के बाद सीता , रावण को देखती भी हैं तो सीधे नहीं , तृण की ओट से।
ऐसे बहुत से अन्य प्रसंग हैं। रामचरित मानस क्या है ? एक महाकाव्य ही तो है। पर क्या कीजिएगा एक वर्ग ने अपने दंभ और पाखंड में तुलसी को पोंगापंथी बता रखा है । रामायण सिर्फ़ महाकाव्य नहीं , परवरिश का सूत्र भी है। मर्यादा और गरिमा का पाठ भी। समाज को सुगठित करने का सूत्रधार भी। लोगों ने उसे धार्मिक ग्रंथ भी बना लिया है।
लेकिन तुलसी का रामायण, पाखंड नहीं , तर्क और विवेक सिखाता है। सत्य का साक्षात्कार करना सिखाता है। लेकिन कुछ लोगों को यह बहुत चुभता है और वह लोग विष-वमन करते हैं। लेकिन तुलसी के यहाँ तो राम भी अपने दुश्मन , रावण से सीखने की बात करते हैं। रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित करने के लिए रावण को ही अपना पुरोहित बनाते हैं। रावण भी जानता है कि राम यह अनुष्ठान उस से लड़ने के लिए ही कर रहे हैं , सेतु बनाने के लिए कर रहे हैं। न सिर्फ़ पुरोहित बन कर रावण उपस्थित होता है , पूजा के लिए सीता को भी साथ लाता है । ताकि राम , सीता के साथ पूजा संपन्न कर सकें। पूजा बिना पत्नी के अपूर्ण मानने की एक परंपरा सी है। तब भी थी , अब भी है l इस लिए भी कि स्त्री के बिना पुरुष , अपूर्ण है।
इस बात को इस एक संदर्भ से भी समझ लेने में नुक़सान नहीं है। बाक़ी सब का अपना-अपना विवेक है। अपनी समझ और दृष्टि है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी।
