डॉ. भूपेंद्र सिंग : तुम्हारी प्राथमिक आइडेंटिटी तुम्हारी जाति है जो कि फ्रॉड आइडेंटिटी है..

जब कोई व्यक्ति यह लिखता है कि क्षत्रिय होने के बावजूद ब्राह्मण समाज का सम्मान करता हूँ, मैं बनिया होने के बावजूद क्षत्रिय समाज का सम्मान करता हूँ, मैं कायस्थ होने के बावजूद फला समाज का सम्मान करता हूँ, तो मुझे कोफ़्त होने लगती है.
इसके दो कारण है, पहला यह कि तुम किसी को केवल हिन्दू भर होने के नाते सम्मान देने में असफल साबित हो रहे हो, तुम्हारी प्राथमिक आइडेंटिटी तुम्हारी जाति है जो कि फ्रॉड आइडेंटिटी है. जब मैं जातीय आइडेंटिटी को फ्रॉड कहता हूँ तो यह भावनावश या लक्ष्य केंद्रित होने के कारण जबरदस्ती नहीं लिखता.

यदि आप राह चलते व्यक्ति का चेहरा देखकर उसकी जाति बता देते तो मैं मान लेता की चलो भाई कम से कम यह जानवरों की भांति नस्लीय पहचान तो देता है. यदि आप को किसी की जाति बता दी जाए और उससे आप उस व्यक्ति के गुण सटीक तरीके से प्रेडिक्ट कर पाएं तो भी समझ आता है की इस पहचान से कुछ तो फायदा है जबकि सत्य यह है कि हर जाति में समान प्रकार से अच्छे और बुरे लोग भरे हुए हैं. अब हम किसी के जाति के आधार पर किसी के नैतिक मूल्यों की पहचान कर पाएं तो भी समझ आता है कि इस पहचान का कोई मूल्य है, जबकि सत्य यह है कि प्रत्येक हिन्दू का नैतिक मूल्य एक प्रकार का है.

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दूसरा कारण मेरे कोफ़्त का यह है कि तुम अलग अलग जगह के प्रोमिनेन्ट जातियों को सम्मान देकर कौन सा बहुत बड़ा कद्दू में तीर मार रहे हो? और जो लोग सम्मान पाकर गदगद हो रहे हैं, वह कौन सा बड़ा काम कर रहे हैं? यह तो दुनिया का सबसे साधारण काम कर रहे हो. यदि तुम्हारे भीतर वास्तव में नैतिक साहस है तो ये कहो कि मैं क्षत्रिय होकर भंगी भाइयों का सम्मान करता हूँ, मैं ब्राह्मण होकर अपने डोम भाइयों का सम्मान करता हूँ. जिसको जिस चीज की जरुरत है, उसे वह चीज दो. ब्राह्मण आज भी गाँव में घूमे तो तमाम जातीय विद्वेष के बावजूद हर आदमी प्रणाम करता ही है. कम से कम ऐसा काम करो जिसकी जरुरत है. बेवजह में एक दूसरे का पीठ सहलाने से कोई फायदा नहीं होना है.

उससे बड़ी बात आप वह पहचान अपनाओ जो वास्तव में दुनिया में एक्सिस्ट करती हो, कम से कम किसी को हिन्दू बताया जायेगा तो तुम्हे यह तो पता होगा कि उसके और हमारे नैतिक मूल्य एक जैसे हैं, बाकी कुछ पता रहे या नहीं. इस पहचान से यह तो गारंटी मिली ही है. इसलिए फ्रॉड कांसेप्ट जो हमें पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाये जाते रहे, उस पर प्रश्नचिन्ह लगाने की हिम्मत करिये. बचपन से जिस पहचान के बारे में परिवार और समाज ने कंडीशनिंग कर दी है, उससे अहम् आना स्वाभाविक है, लेकिन हम पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं. हम जो विचार लेकर पैदा होते हैं उसमें सुधार की संभावना हमेशा बनी रहती है. और यह सुधार हमें निरंतर करते रहना चाहिए.

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