डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : हमारे पूजन में कैसा विज्ञान अंतर्निहित है…

हम रोज नारा सुनते हैं दुनिया हमसे सीखने को तैयार है, लेकिन प्रश्न उठता है कि दुनिया हमसे क्या सीखने के लिए तैयार है और वह जो सीखने के लिए तैयार है हम स्वयं उसे कितना सीख चुके हैं?

 

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हमारे पास प्राचीन ज्ञान की जो थाती है वही हमें दुनिया में विशिष्टता प्रदान करती है, लेकिन उस ज्ञान से हम स्वयं कितने अवगत हैं और वह हमारे व्यवहार में कितना है? हम जिस ज्ञान को दुनिया को देने के लिए आतुर हैं क्या उस ज्ञान के अनुरूप आज की हमारी व्यावहारिक संरचनाओं का विकास हुआ है या हो रहा है?

ज्ञान की विरासत का अधिकारी पुस्तकों के संग्रह से नहीं और न ही पूर्वजों के यशोगाथा गाने से बना जाता है बल्कि उसे व्यवहार में उतारना पड़ता है। न हमारे बोध में हो और न हमारे व्यवहार में हो, बस हमें यह पता हो कि हमारे परदादा बड़े तीरंदाज थे तो क्या कोई धनुष विद्या का ज्ञान देने लगेगा?

हमारे जीवन की किस संरचना का आधार हमारा प्राचीन ज्ञान है और कितना है, पहले इसका विश्लेषण होना चाहिए। पुस्तकों के कुछ उद्धरणों के उल्लेख करने से आगे हम उसकी कितनी अनुभूति कर सके हैं और कितना व्यवहार में उतार सके हैं, दूसरों को सिखाने से पहले आज स्वयं इसके विश्लेषण की आवश्यकता हैं।

हम दुनिया के विकास माॅडल के साथ घिसटते जा रहे हैं। हमारा रहन-सहन, आचार-विचार, व्यवहार सब कुछ बदल रहा है। बदलाव बुरा नहीं है लेकिन उस बदलाव में हम जिस ज्ञान को देने की बात कह रहे हैं उसकी दृष्टि कितनी है? आज इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

एक छोटा सा उदाहरण देखें तो हम गृह प्रवेश, विवाहादि के अवसर पर जो पूजन करते हैं उसमें कितना बड़ा विज्ञान अन्तर्निहित है, क्या उसकी तरफ कभी हमारा ध्यान जाता है, क्या हम उसे समझ पाते हैं या केवल औपचारिकता ही करते हैं?

इन पूजनों में नव ग्रह और मातृका पूजन का विधान है और यह विधान हजारों वर्षों से है, जब आज के आधुनिक देशों को ग्रह नव होते हैं इसका बोध भी नहीं था। इन नव ग्रहों का हमारे जीवन के साथ क्या सम्बंध है और इनमें सामंजस्य और शान्ति हमारे जीवन के लिए कितनी आवश्यक है, इसका बोध हमारे पूर्वजों को हजारों वर्ष पूर्व था। जीवन के आधारभूत तत्वों की पूजा षोडश मातृका के रूप में की जाती है। हम इन पूजनों के माध्यम से यह संकल्प करते हैं कि हमारे व्यावहारिक क्रियाकलाप में इनके साथ सामंजस्य का विधान होगा। क्या हमारे व्यवहार और विकास माॅडल में इसका पालन हो रहा है?

गौरी पद्मा शची मेधा,
सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा,
मातरो लोकमातरः॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः,
आत्मनः कुलदेवता ।
गणेशेनाधिका ह्येता,
वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥

जीवन के प्रत्येक व्यवहार में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ सामंजस्य यही हमारी विकास यात्रा थी और यही हमारी धर्म यात्रा थी। हमारे विकास में ग्रहों, नक्षत्रों से लेकर पंच महाभूत- आकाश, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी और उनसे उत्पन्न पशु, पक्षी और वनस्पति तक के साथ सामंजस्य की भावना थी और इसको जीवन में उतारने का प्रयास ही हमारा धर्म है। आज हमारी विकास यात्रा क्या इस आधार पर बढ़ रही है?

दुनिया अपनी विकास यात्रा के माध्यम से एक विभीषिका की ओर बढ़ रही है और हम उसके साथ घिसटते जा रहे हैं।

निःसंदेह दुनिया को अपनी समस्याओं के समधान के लिए भारतीय के प्राचीन ज्ञान की आवश्यकता है और वह उससे सीख भी रहे हैं, लेकिन उसमें हमारी कितनी भूमिका है यह विचार का विषय है, बल्कि कभी-कभी तो ऐसा दिखता है कि हम अपने प्राचीन ज्ञान को भी विदेशियों से ही सीखने के लिए उत्सुक हैं। जब वे कहेंगे यह ठीक है तभी हम मानेंगे, जब वे उसका व्यवहार करेंगे तभी हम व्यवहार करेंगे, इसलिए सिखाने का दम्भ छोड़कर पहले स्वयं सीखने और जीने का प्रयास करना चाहिए। सूर्य उदित होगा तो प्रकाश स्वयं फैलेगा वरना जिसका सब कुछ स्वयं बदल रहा हो वह दूसरों को क्या बदलेगा?

साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह

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