ध्रुव कुमार : “रघुकुल रीति सदा चली..” कौन हैं रघु ?

मनुवंशी महान रघु …..

रघुकुल रीति सदा चली आई ।
प्राण जाए पर वचन न जाई।।

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यह बात तो हम सभी जानते हैं कि रघुकुल में वचन की मर्यादा प्राणों से भी बढ़कर थी अर्थात एक बार किसी रघुवंशी ने किसी को वचन दे दिया तो वह अपने प्राणों का भी त्याग कर सकता था लेकिन वचन को नही तोड़ सकता था।

लेकिन आखिर वे महान रघु कौन थे और उन्होंने ऐसा क्या किया था कि उनके साथ यह उक्ति उपमा की तरह जुड़ गई और जिन्होंने ब्रह्मवेत्ता ऋषि और सूर्यवंश के संस्थापक भगवान मनु के वंश में मर्यादा की वह नींव डाली जिसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने चरम पर पहुँचा दिया।

वे रघु धर्मात्मा राजा दिलीप और महारानी सुदक्षिणा के पुत्र थे जिन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की परमपवित्र गौ नंदिनी की एकनिष्ठ साधना और सेवा के पश्चात रघु के रूप में सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त किया था।

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एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करती है वह हैं कि इच्छवाकु वंश में महान राजाओं को कोई भी संतान सरलता से प्राप्त नही हुई अपितु अत्यंत साधन और कठिनाई के बाद ही प्राप्त हुई है चाहे रघु हो, अज हो, दशरथ हो, भगवान राम हो या लव कुश हो।

लेकिन जो भी पुत्र हुआ वह प्रतापी और चक्रवर्ती हुआ जिसने अपने घोड़ों की टापों और खड्ग की धार से पूरी पृथ्वी को विजय किया।

जहाँ तक दिलीप की बात है तो उन्होंने एक बार भूलवश परमपवित्र कपिला गौ को उचित सम्मान नही दिया था परिणाम स्वरूप उन्हें यह श्राप प्राप्त हो गया कि जब तक वे नंदिनी गौ की सेवा नही करेंगे तब तक उन्हें पुत्र प्राप्ति नही होगी। इसीलिए उन्होंने नंदिनी की एकनिष्ठ सेवा की तब रघु का जन्म हुआ।

रघु ने अपनी शक्ति से पूरे जम्बूद्वीप की दिग्विजय तो ही थीं लेकिन जहां तक उनके वचन की महिमा का प्रश्न है तो इसके बारे में दो उदाहरण सबसे महत्वपूर्ण हैं।

एक जब वे युवराज थे और उनके पिता दिलीप ने मोक्ष प्राप्ति के लिए सौ अश्वमेध यज्ञ करने का निर्णय लिया। दिलीप के 99 यज्ञ तो सकुशल सम्पन्न हो गए लेकिन सौवें अश्वमेध यज्ञ के समय बड़ी बाधा तब उत्पन्न हुई जब सूर्यमंडल के संचालक सचिपति भगवान इंद्रदेव ने उन पर आक्रमण किया।

दरसअल सौ अश्वमेध यज्ञ का गौरव और अधिकार केवल भगवान इंद्र को प्राप्त है। यह भी विधान है कि जो भी सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने में सफ़ल होगा वह अगला इंद्र हो जाएगा।

अतः यह यज्ञ देवराज इंद्र के आत्मगौरव के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी इसीलिए उन्होंने दिलीप के सौवें यज्ञ के घोड़े का अपहरण कर लिया।

उस यज्ञ के अश्व की रक्षा का दायित्व युवराज रघु पर था लेकिन देवराज इंद्र ने ऐसी माया फैलाई की रघु को अश्व दिखाई देना ही बन्द हो गया। इसके परिणामस्वरूप रघु विचलित हो गए लेकिन उन्होंने अपने मन और क्रोध पर संयम किया तथा उन नंदिनी गौ का ध्यान किया जिनके कारण उनका जन्म हुआ था।

कुछ समय के पश्चात गौ नंदिनी उनके पास से गुजरती हुई दिखाई दी जिसके शरीर से जल टपक रहा था।रघु ने गौ को प्रणाम किया उसके शरीर से टपकते जल से अपने नेत्रों को धोया। परिणामस्वरूप इंद्र की मायाजाल से वो मुक्त हो गए। इसके बाद उन्होंने देखा कि देवराज इंद्र उस सौवें अश्व को लेकर स्वर्ग जा रहे थे।

उन्होंने देवराज को रोकते हुए कहा “हे पूजनीय देवराज आपको यह छल शोभा नहीं देता है कि आप इस तरह का कलुषित और अशोभनीय कार्य करें, क्योंकि यह यज्ञ तो आपकी ही आराधना के लिए हैं।”

इस घटना का वर्णन कालिदास इतने अद्भुत तरीके से करते हैं कि युद्ध की पूरी घटना आंखों के सामने साक्षात दृश्य हो जाती है।

रघु कहते हैं “पूज्य देवराज मेरे रहते देवता भी इस धरा पर अधर्म और अनाचार नही कर सकते हैं।”

एक ओर वज्रधारी देवराज इंद्र जिनके प्रहार से मेरु पर्वत के शिखर भी धूलधूसरित हो जाते थे व जिनके हाथ व्रज को धारण करने के कारण वज्र के समान ही शक्तिशाली और कठोर थे तो वही दूसरी ओर धर्मरक्षक और पिता को वचनबद्ध रघु के बीच भीषण युद्ध होता है।

अंत में देवराज इंद्र रघु पर प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं कि “तुम्हारे पिता को सौ यज्ञ किए बिना ही सौ यज्ञ का फल प्राप्त होगा अतः अब उनसे कहो कि वे यज्ञ बन्द कर दें।”

दूसरी घटना तब की है जब महाराज रघु सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को जीतकर ‘विश्वजीत यज्ञ’ करते हैं। इस यज्ञ का नियम है कि यज्ञ के पश्चात यज्ञकर्ता को अपना सर्वस्व दान देना होता है।

दानशील रघु ने यज्ञ के नियमों का पालन करते हुए अपना सर्वस्व कोष अपनी प्रजा और ऋषियों को दान दे दिया। अब उनके पास वल्कल वस्त्र के अलावा कुछ भी शेष नही रह गया था।

एक दिन रघु मिट्टी के पात्रों में भोजन करने के लिए बैठे ही थे कि तभी एक वेदपाठी युवा सन्यासी उनके पास आया जिसे देखकर रघु ने उठकर उसे प्रणाम किया और यथोचित सम्मान दिया।

दरसअल यह कौत्स नामक सन्यासी थे जिन्होंने अभी- अभी अपनी शिक्षा पूर्ण की थीं और उनके गुरु ने उनकी सेवा को ही अपनी गुरुदक्षिणा के रूप में स्वीकार कर लिया था।

लेकिन कौत्स के द्वार बार बार गुरुदक्षिणा की जिद करने से क्रोधित होकर उनके गुरु ने उनसे चौदह भुवन स्वर्ण मुद्राएं मांग ली थीं।

अतः कौत्स वही चौदह भुवन स्वर्ण मुद्राएं लेने रघु के पास आए थे लेकिन जब उन्होंने रघु की दानशीलता को देखा कि रघु ने अपना सर्वस्व कोष जनता को न्योछावर कर दिया है तो उन्होंने कुछ नही कहा।

लेकिन रघु के अनुनय करने पर उन्होंने अपनी इच्छा बताई लेकिन जब उन्होंने कहा कि “राजन आप व्यथित न हो मैं अन्य राजा से याचना करूँगा ..”

तब रघु ने कहा “धिक्कार है उस मनुवंशी को जो अपने वचन को पूरा न कर सके और यदि मेरे रहते आपको अन्य राजा के यहाँ याचना करनी पड़े उससे पहले मुझे अपनी देह का त्याग करना होगा।”

इसके बाद प्रतापी रघु ने विचार किया कि पूरे जम्बूद्वीप की सम्पत्ति को वे प्रजा को दान कर चुके हैं अतः अब धन कहाँ से आएगा। यह विचार करके उन्होंने अलकापुरी पर आक्रमण करने का निर्णय लिया।

वल्कल वस्त्र धारण किए हुए रघु ने अपना धनुष उठाया, सेना को सज्ज करके अलकापुरी पर आक्रमण किया लेकिन इससे पहले कि युद्ध होता देवराज इंद्र ने उन्हें इतना धन दिया कि उनके कोष में पहले से भी अधिक धन हो गया।

इसके बाद रघु ने वह पूरा धन उस सन्यासी को देने के लिए निकाला लेकिन एक ओर ब्रह्मचारी कौत्स चौदह भुवन से ज्यादा एक स्वर्णमुद्रा लेने को तैयार नही था तो वहीं दूसरी ओर रघु सारा धन देने के लिए उद्दत थे। यह अत्यंत अद्भुत वर्णन है।

ऐसे महान थे रघु जिनसे यह कुल “रघुकुल” कहलाया और जिनका वचन अमर हो गया।

जय श्री राम 🚩🚩🚩

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