कमलकांत त्रिपाठी : तुलसी का रूढ़िवाद: शूद्र और नारी के प्रति तुलसी की संकुचित दृष्टि का यथार्थ..(दो)

रामचरितमानस एक प्रबंधकाव्य है जिसके नायक दशरथनंदन राम हैं और खलनायक है रावण। नायक-खलनायक के अतिरिक्त इसमें अनेक पात्र हैं जिनमें कुछ खल हैं, कुछ सज्जन, तो कुछ दोनों के मध्यवर्ती। जैसा कि संसार में होता है, कुछ सत्पात्र भी परिस्थिति की चपेट मे खल-जैसा आचरण करने लगते हैं। और तो और, शेषावतार लक्ष्मण का क्रोध उनकी नाक पर रहता है। कभी-कभी जब वे आपे से बाहर हो जाते हैं, नीति-विरुद्ध, असंयमित बातें करने लगते हैं और राम को बहुत कुशलता से स्थिति सँभालनी पड़ती है।

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भरत के चित्रकूट आगमन का लक्ष्य था माता कैकेयी के कृत्य के लिये राम से क्षमायाचना और उनसे अयोध्या लौटकर राज्य सँभालने का अनुनय करना। भरत अयोध्या से चलने लगे तो गुरु वसिष्ठ के अलावा राम के साथ हुए अन्याय से क्षुब्ध अयोध्यावासी भी उनके साथ लग लिये। कोशल राज्य की चतुरंगिणी सेना भी। लक्ष्मण चित्रकूट के अपने बसेरे से उत्तर की ओर उठती धूल, पशु-पक्षियों के पलायन और स्थानीय लोगों से सेना का समाचार पाकर, भरत के लक्ष्य के बारे में आशंकित और क्रोध से लाल हो गये। भरत की ऐसी मज़म्मत की जैसे वे भाई नहीं दुनिया के सबसे बड़े शत्रु हों। उन्हे लगा, भरत सेना के साथ राम को परास्त कर अपने राज्य को निष्कंटक और स्थायी बनाने आ रहे हैं। फिर तो राम के लिए वनगमन की आज्ञा के समय से उफनता किंतु किसी तरह दबाया हुआ उनका क्रोध उन पर हावी हो जाता है और वे राम से भरत को सेनासहित युद्ध में हराकर मौत के घाट उतार देने की बात करने लगते हैं—

Veerchhattisgarh

आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करऊँ रिस पाछिल आजू।
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातऊँ खेता।
जौ सहाय कर संकरु आई। तौ मारौं रन राम दोहाई।

[अच्छा हुआ जो भरत का पूरा शक्ति-संगठन आज यहाँ एक साथ उपस्थित हो गया। मुझे पहले से दबाये हुये सारे क्रोध को कार्यरूप देने का अवसर मिल गया। जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है, जैसे बाज पक्षी तीतरों को लपेट में ले लेता है, वैसे ही आज मैं भरत को भाई शत्रुघ्न और सेना सहित मैदान में तिरस्कृत कर पछाड़ दूंगा। यदि शंकर जी भी उनकी सहायता में आयें, मुझे भ्राता राम की सौगंध, आज युद्ध में उनकी हत्या करके रहूँगा।]

(अयोध्याकाण्ड, 229:3-4)

राम किसी तरह समुझा-बुझाकर लक्ष्मण को शांत करते हैं।

कोई तुलसी द्वारा लक्ष्मण के चरित्र-चित्रण के उदाहरण के रूप में उपरोक्त चौपाइयों को उद्धृत करता है?

वाल्मीकीय रामायण में तो कैकेयी को दिये गये वचन की मजबूरी के बावजूद, दशरथ द्वारा राम के वनवास का आदेश दिये जाने पर लक्ष्मण इतना भड़क उठते हैं कि वृद्ध पिता को विषय-व्यसनी और काम के वशीभूत होकर, कैकेयी के प्रति आसक्ति के चलते कोई भी अकृत्य कर सकने का दोषी क़रार दे देते हैं और उन्हें दंडित करने, मार डालने तथा बात फैलने के पहले ही राम को बलात्‌ शासन की बागडोर अपने हाथ में ले लेने की सलाह देने लगते हैं (अयोध्याण्ड, सर्ग-21)। तुलसी इस कलुषित प्रसंग से तो किनारा करके निकल जाते हैं किंतु भरत के चित्रकूट आगमन के लक्ष्य के प्रति आशंकित लक्ष्मण के दुर्निवार क्रोध की अभिव्यक्ति से तुलसी भी अपने को रोक नहीं पाते। मानव-स्वभाव की अविगत गति का चित्रण प्रबंध काव्य का मूल तत्व है।

तो प्रबंधकाव्य की अपनी अनिवार्यताएँ होती हैं। मनुष्य के शुभ-अशुभ सभी रूपों, सभी भावों, सभी पूर्वाग्रहों का चित्रण करना पड़ता है। नौ रस और वक्रोक्ति, अन्योक्ति, अतिशयोक्ति जैसे अलंकारों के सम्यक्‌ संयोजन के बिना कोई भी प्रबंधकाव्य साहित्यिक कृति के रूप में पूर्ण नहीं होता। इसलिए कोई बात किस पात्र द्वारा किस अवसर पर कही गई, इस पर विचार किये बिना उसे प्रबंधकार का मंतव्य घोषित कर देना पूर्णत: परिप्रेक्ष्य-विहीन है और उद्घोषक की मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति के सिवा उससे कुछ भी निर्धारित नहीं होता।

इस परिप्रेक्ष्य में मानस के कुछ विवादित प्रसंगों के पुन:परीक्षण की ज़रूरत है।

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥ (मानस, सुन्दरकाण्ड, 58:3)

यह समुद्र का वचन है जो संबन्धित प्रसंग में एक शुभ कार्य में अनायास अवरोध उत्पन्न करनेवाले, हठी, धूर्त, कायर और अवसरानुरूप रंग बदलनेवाले खलनायक के रूप में सामने आता है।

राम वानरों-रीछों की सेना के साथ लंका अभियान के लिए समुद्र तट तक आ गये हैं। समुद्र से लंका का मार्ग देने का अनुनय करते तीन दिन बीत गये हैं। जड़ और कुटिल समुद्र अपनी शठता और अहंकार में डूबा, विनय की भाषा न समझने के हठ पर अड़ा हुआ है–

बिनय न मानत जलधि जड़ गये तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि विसिखि कृसानू॥
सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु विसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥

[विनयपूर्वक याचना करते तीन दिन बीत गये किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब राम ने क्रोध में आकर कहा, भय के बिना प्रेम नहीं होता।
हे लक्ष्मण, धनुष-बाण लाओ। अग्निबाण से मैं समुद्र को सुखा दूँगा। मूर्ख से विनय, कुटिल से प्रेम, स्वभाव से कृपण को उदारता का उपदेश, ममत्व से बिंधे मनुष्य से ज्ञान की कथा, अतिशय लोभी से वैराग्य का आख्यान—इनका फल वैसा ही होता है जैसा ऊसर ज़मीन में बीज बोने का।

ऐसा कहकर प्रभु राम ने धनुष चढ़ा लिया जो लक्ष्मण के मन का काम हुआ। जब राम ने भयानक अग्नि बाण का संधान किया, समुद्र के हृदय में ज्वाला जल उठी। घड़ियाल, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो उठे। समुद्र को जंतुओं के जलने का एहसास हुआ तो उसका अभिमान मिट्टी में मिल गया। सोने के थाल में अनेक रत्नों को सजाकर, वह ब्राह्मण के रूप में राम के सम्मुख प्रकट हुआ।]

(सुन्दरकाण्ड, 57, 57: 1-4)

और तब—

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाये। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
प्रभु कीन्हि भल मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुमही कीन्हीं॥
ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥

[भयभीत समुद्र ने राम के चरण पकड़ लिये और बोला—हे नाथ, मेरे दोषों को क्षमा कीजिए। फिर अपनी क्षमा-याचना को बल देने के लिए राम को ही उपदेश देने लगा–हे नाथ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये स्वभाव से ही जड़ हैं। सभी ग्रंथ गाते हैं कि आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें उत्पन्न किया है। ईश्वर की आज्ञा से जो जैसा है, वह उसी में सुख पाता है। आपने अच्छा किया, मुझे दंडित करने के लिए सन्नद्ध होकर सीख दे दी। क्या है कि ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी–ये दंड के ही लायक हैं।]

(सुन्दरकाण्ड, 58: 1-2)

यहाँ समुद्र एक कुटिल और कायर खलनायक है। विनय की भाषा नहीं समझता किंतु अग्निबाण का संधान होने पर रंग बदलकर स्वयं को जड़ और दंड का अधिकारी बताने लगता है। साथ में चार अन्य को भी अपने समकक्ष घसीट लेता है‌। धूर्त का यही लक्षण है। ऐसे धूर्त खलनायक का वचन प्रबंधकार का वचन नहीं माना जाता, बल्कि उसका मंतव्य उल्टा समझा जाता है।

इस कथन से तुलसी की अपनी मान्यता का कुछ भी लेना-देना नहीं है।

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