सर्वेश तिवारी श्रीमुख : ब्राम्हण ! यात्रा के समय बिना तिलक का ब्राह्मण दिख जाय तो अपशकुन.. और…
शिखा सूत्र छूट गया। विधि निषेध छूट गया। संध्या गायत्री छूट गया। वेदाध्ययन गया, संस्कार गए, सारी परंपराएं गयीं… बचा है तो एक अधूरा विशिष्टताबोध, जिसका कोई कारण नहीं। कभी सोचे हैं, क्या करेंगे यह विशिष्टताबोध ले कर?
जिस गाँव में ब्राह्मणों के सौ घर हैं, वहाँ संस्कृत पढ़ने वाला एक बालक नहीं। आपका बच्चा एक्स्ट्रा सब्जेक्ट में फ्रेंच और जर्मन तो पढ़ता है, पर संस्कृत नहीं पढ़ता। फिर काहे के ब्राह्मण और काहे का ब्राह्मणत्व मित्र?
कितने युवक हैं जो अपना गोत्र, प्रवर, वेद, उपवेद, छंद आदि बता पाएंगे? स्वयं से ही पूछिये, सत्ताईस नक्षत्रों के नाम याद हैं? बिना अटके बारह राशियों का नाम बता पाएंगे? सम्भव है कि कुछ बारह महीनों के हिन्दी नाम तक न बता सकें? यह सब पिछले बीस साल में समाप्त हुआ है। यहाँ तक कि धोती बांधना तक नहीं आता, और दावा यह कि हम देवता हैं। क्या मूल्य है इस दावे का मित्र?
हमारे गुरुजी कहते थे, “यात्रा के समय बिना तिलक का ब्राह्मण दिख जाय तो अपशकुन होता है। बिना तिलक के ब्राह्मण से बड़ा चांडाल कोई नहीं…” कितने ब्राह्मण युवक नित्य तिलक लगाते हैं?
शराब पीना आम हो ही गया है। मांसाहार सहज हो ही गया है। शायद बुरा लगेगा, किंतु इंस्टा पर मुजरा करने वाली नायिकाओं में सबसे अधिक आपके आंगन से निकली हैं। बौद्धिक कहलाने के लोभ में धर्मविरुद्ध बोलने, लिखने वाले आपके युवक हैं। और इसके बाद भी हम अहंकार में हैं कि हम श्रेष्ठ हैं? क्या सचमुच हैं?
जातीय अस्मिता, जातीय एकता, स्वजातीय बंधुओ का हित चिंतन… सुनने में अच्छा लगेगा, किंतु जब धर्म की डोर ही हाथ से छूट जाय तो उस एकता का क्या करेंगे? तब जाति का मूल्य केवल अपने स्वजातीय उम्मीदवार को वोट करने तक रह जायेगा दोस्त! यह ब्राह्मण के लिए तो ठीक नहीं है न कम से कम…
इतना तो आप समझते ही होंगे कि सम्मान खो चुके हैं। दरअसल सम्मान तब मिला था जब आप भौतिक सुविधाओं का लोभ त्याग कर धर्म और सामाजिक हित में लगे थे। अब भौतिक संसाधनों का मोह आपको अन्य से अधिक ही है। तो विशेष सम्मान क्यों ही मिलेगा? यदि कोई दे रहा है तो यकीन जानिये, वह अपने मन में बैठी अपनी पुरानतन परम्पराओं का आदर कर रहा है, आपका नहीं…
इटावा के उस गाँव में ब्राह्मणों के सौ घर हैं। ना उन सौ परिवारों में कोई एक भी युवक मिला जो भागवत कथा कह सके, न उनके परिचय, सम्बंध में कोई मिल सका। सोचिये तो, क्या उनलोगों के पास यह नैतिक अधिकार है कि किसी दूसरे का दायित्व तय सकें? और यदि नाम छुपा कर कथा बांचने का दण्ड सर मुड़ा देना है, शिखा काट देना है, तो ब्राह्मण हो कर परम्परा त्यागने का दण्ड क्या होगा?
यदि छेड़खानी भी हुई है तो उसे परम्परा छूटने का छोटा मोटा ही दण्ड मानिए। पतन नहीं हुआ तो कोई छेड़खानी करने वाले को नहीं बुलाना पड़ता न! कब तक दूसरों को दोष देते रहेंगे महाराज? एक बार अपने भीतर झांकने की भी जरूरत है न?
और हाँ! यह लिखना कितना रिस्की है, यह भी समझ रहा हूँ। रिस्क लिया है लेकिन…
बस यूँ ही…
तस्वीर नेट से साभार। सांकेतिक ही है…
