NRI राजीव मिश्रा : दीनता, दरिद्रता, दासता को ग्लोरीफाई करती परंपरा के बीच हार कर भी मुख्यधारा के विचार बन गए

काशी घूम रहा हूं. बाबा के दर्शन हुए. बाबा के मंदिर का कायाकल्प हो गया है, काशी के घाट जैसे सिनेमा के सेट जैसे सजे धजे लग रहे हैं. गंगा आरती तो एक दैनिक सांस्कृतिक उत्सव हो रखा है. और ऊपर से ज्ञानवापी में पूजा शुरू हो गई है तो नंदी की प्रतीक्षा भी पूरी होने वाली है.
पर इन सबसे परे…काशी का एक और मोन्यूमेंट है जो जैसा था वैसा ही है, पर उसे एक नई दृष्टि से देखने का मौका मिला… काशी हिन्दू विश्वविद्यालय.

Veerchhattisgarh

एक अकेले व्यक्ति की अद्भुत उपलब्धि है बीएचयू. महामना की बगिया. मालवीय जी का क्या विजन था…और उस विजन को पूरा करने की एनर्जी थी. और सबसे बढ़कर क्या क्रेडिबिलिटी अर्जित की थी कि लोगों ने उन्हें जमीन दान कर दी, धन दान कर दिया… किसी को कोई दुविधा नहीं थी कि इस धन का सदुपयोग होगा या नहीं. और बड़े से बड़े मूर्धन्य विद्वान उनकी फैकल्टी बन कर आए.

महामना मालवीय जी की दृष्टि की स्पष्टता अदभुत थी. उन्होंने सौ बरस से भी पहले एक मॉडर्न यूनिवर्सिटी बनाई. उसमें शिक्षा के दरवाजे सबके लिए खोले.. काशी की रूढ़िवादी रिलीजियस रॉयल्टी के विरोध के बावजूद. और उसका नाम रखा हिन्दू विश्वविद्यालय. कोई दुविधा नहीं, कोई द्वंद नहीं. कोई बीच बीच का रास्ता, फाइन बैलेंसिंग नहीं. क्या पढ़ाना है, किसे पढ़ाना है, और उसके ऊपर किन फिलोसोफिकल आइडियाज के साथ पढ़ाना है..उन्हें बिल्कुल स्पष्टता से मालूम था. महामना ने एक मॉडर्न यूनिवर्सिटी बनाई तो उसके बीचोबीच महादेव का भव्य मंदिर भी बनाया. अगर महामना की दृष्टि गांधियन सेकुलरिज्म से जरा भी चौंधियाई होती तो नेहरूवियन ब्यूरोक्रेसी ने उनके जीवन की उपलब्धि का कचरा कर दिया होना था.

उस मंदिर की दीवारों पर जो वचन लिखे हैं वे महामना की विराट और स्पष्ट दृष्टि के परिचायक हैं. सबसे पहले भित्ति पर वेद वाक्य लिखे हैं जिनमें ऋषियों द्वारा वीरता का उपदेश बताया गया है. महादेव के मंदिर में प्रवेश करने से भक्ति स्वतः उपज आती है, पर महामना ने सायास वीरता के उपदेश देना चुना. एक अन्य भित्ति पर महात्मा बुद्ध, जैनियों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव, और सांख्यदर्शन के तत्वज्ञाता कपिल मुनि को स्थान दिया गया है जो हिंदुत्व की अन्य फिलोसॉफिकल धाराओं के प्रति उनके समावेशी एप्रोच को दिखाता है.

पर जिस एक बात ने मेरा मन मोह लिया, वह था महामना का यह वाक्य : पाप दीनता, दरिद्रता और दासता पाप…प्रभु दीजे स्वाधीनता मिटे सकल संताप.
जिस समाज में दीनता, दरिद्रता को ग्लोरीफाई करने की परंपरा रही है उसमें उनके द्वारा इन तीन पापों को पहचानना उनकी 6/6 सांस्कृतिक विजन का परिचायक है. उन्होंने स्वाधीनता को सकल सतापों को हरने वाला पहचाना है, प्रभु से और कुछ नहीं मांगा है. मांगते तो और बहुत कुछ मांग सकते थे… दया, त्याग, शांति, भक्ति, इंटेलीजेंस कुछ और मांग सकते थे, जो अपने आप में श्लाघ्य गुण हैं. पर उन्होंने दरिद्रता को पाप कहा, स्वाधीनता को समस्त संताप हरने वाला उपाय. समृद्धि और स्वतंत्रता का यह अंतर्संबंध पहचानने की दृष्टि अपने आप में उन्हें अपनी पीढ़ी के नंगे फकीरों से कई सोपान ऊपर खड़ा करता है.

अपने जीवन काल में महामना को काशी में एक वर्ग द्वारा विरोध और अपमान भी झेलना पड़ा. वे स्त्रियों और शूद्रों की शिक्षा के प्रश्न पर वाद विवाद में उतरे, और सुनते हैं कि वे शास्त्रार्थ में हार गए. पर महामना की ओर देखने पर मुझे लगता है कि वे बहस करने और जीतने की जिद रखने वाले व्यक्ति थे नहीं. उन्हें बहस नहीं जीतनी थी, काम करना था. उन्होंने दूषित और अपंग एपिस्टमोलॉजी के विरुद्ध बहस को रोक कर काम करना जारी रखा… परिणाम यह रहा कि महामना के विचार हिन्दू समाज की मुख्यधारा के विचार बन गए और उनसे बहस करने वाले लोग बहस जीत कर भी अप्रासंगिक हो गए.

महामना की बगिया से, मुग्ध और कृतज्ञ हम..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *