कमलकांत त्रिपाठी : याद हो कि न याद हो..बक़ौल तिवारी जी.. मनसा आदमी कम्यूनिस्ट और कैपिटलिस्ट दोनों एक साथ होता है

जब वह अपने से सम्पन्न लोगों को देखता है तो उसमें कम्यूनिज़्म ज़ोर मारने लगती है—ज़रूर दूसरों का हक़ मारकर कमाया होगा.

जब अपने से विपन्न लोगों को देखता है तो कैपिटलिज़्म के सुकून में चला जाता है—हमने जो कमाया वह अपनी मेहनत और हिकमत से कमाया है.

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आदमी का मन और उसकी फ़ितरत !

[जी हाँ, सभी आदमी नहीं. तिवारी जी कहते थे–आदमी-आदमी में मनसा जितना फ़र्क़ हो सकता है, उतना अन्य किसी भी प्रजाति के दो प्राणियों में नहीं हो सकता: स्थूलता जैसे-जैसे सूक्ष्मता की ओर बढ़ती है, उसमें भेद की गुंजाइश बढ़ती जाती है.]

आदमी जैसा जटिल और अननुमेय दूसरा प्राणी नहीं मिलेगा। कोई भी दो आदमी एक जैसे न होने के कारण आदमी को परिभाषित नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि आदमी को जानने का दावा करनेवाली सारी विचारधाराएं चारों ख़ाने चित नज़र आती हैं।

आदमी सब कुछ जानना चाहता है किंतु स्वयं को नहीं। जब कि स्वयं को जानना ही सब कुछ जानना है। आत्मज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है। वही सर्वोच्च ज्ञान है। उसको जानने के बाद जानने को कुछ रह नहीं जाता। सारी जिज्ञासाएं शांत हो जाती हैं। सारी एषणाऐं ख़त्म हो जाती हैं।

शंकर के अद्वैत वेदांत के अनुसार वह अवस्था ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान के एकत्व की होती है। वही जीवन्मुक्ति की भी अवस्था है। उसी और केवल उसी अवस्था में चारों ‘महावाक्यों’ — अहं ब्रह्मास्मि, तत्वमसि, अयं आत्मा ब्रह्म और प्रज्ञानं ब्रह्म–की अर्थानुभूति हो सकती है।

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