डॉ. भूपेंद्र सिंग : भारत के हथियारों के दिखे थोड़े से दम इस धंधे में राज कर रहे देश सहमे क्यों हैं ? ऑपरेशन सिंदूर की सफलता से कौन खुश हैं..?

मैंने 20 मई को लिखा था जो प्रधानमंत्री श्री मोदी के आज के साइप्रस प्रवास के बाद और भी ज़्यादा सामयिक हो जाता है, जो निम्नवत् है..

तुर्की की घेराबंदी भारत ठीक से करने में जुटा है और यह घेराबंदी इस युद्ध के बाद से नहीं शुरू हुआ है। इसकी तैयारी पहले से ही चल रही है। पाकिस्तान को जब से मिडिल ईस्ट से समर्थन मिलना बंद हुआ है तब से यह निश्चित हो गया था कि अलगाववादी इस्लाम के नींव पर बना पाकिस्तान कहीं न कहीं से अपने लिए समर्थन अवश्य जुटाएगा, ऐसे में तुर्की उसके लिए एकमात्र विकल्प बचा था। तुर्की को दुनिया में मुसलमानों का नेता बनना है, ऐसे में एक एक परमाणु शक्ति संपन्न देश से हाथ मिलाना उसके लिए भी फायदे का सौदा था। इसलिए कई वर्षों से लगातार तुर्की कश्मीर मामले पर भारत के विरोध में झंडा बुलंद करता रहा है।

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ऐसे में भारत ने बहुत सोच समझकर अपनी चाल चली है। तुर्की के अगल बगल क्रमशः आर्मेनिया, ग्रीस और साइप्रस हैं। तुर्की अपने प्रॉक्सी अज़रबैजान को आगे रखकर ईसाई बहुल आर्मेनिया के ऊपर हमलावर रहता था, ऐसे में आर्मेनिया को एक मज़बूत देश की आवश्यकता थी जो उसके सैन्य जरूरतों को पूरा करता, लेकिन तुर्की पहले से नाटो में है इसलिए नाटो देशों से सहायता प्राप्ति के विकल्प बंद हो गए।

भौगोलिक स्थिति समझने के लिए इस नक्शे को देख सकते हैं।

अतः भारत ने आर्मेनिया को समर्थन देना शुरू किया और भारी पैमाने पर हथियारों को सप्लाई शुरू किया। अब आर्मेनिया और अजरबैजान बराबरी की लड़ाई लड़ रहे हैं। ग्रीस और साइप्रस दोनों पाकिस्तान और तुर्की दोनों से परेशान हैं। इन देशों में अवैध पाकिस्तानी प्रवासी घुस गए हैं और यहाँ पर अपराध को अंजाम देते हैं। ये सब कुछ तुर्की के मदद से हो रहा है। इसी तरह तुर्की साइप्रस के ऊपरी इलाक़ों पर अपना दावा करता आ रहा है और वहाँ पर उसकी सेनाओं को तैनाती भी है। अतः साइप्रस और ग्रीस दोनों तुर्की को घेरना चाहते हैं। भारत सरकार और भारत के तमाम व्यापारिक संगठनो ने मिलकर इंडिया ग्रीस साइप्रस इकोनॉमिक ट्रेड काउंसिल की स्थापना की है, जिसकी एक के बाद एक लगातार बैठके बारी बारी से तीनों देशों में जारी हैं। इन बैठकों में प्रत्येक देश के वरिष्ठ राजनयिक, मंत्री और बड़े उद्योग घरानों के प्रतिनिधि शामिल हो रहे हैं। प्रयास यह है कि ग्रीस और साइप्रस के साथ भारत के संबंध तेज़ी से प्रगाढ़ हों।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद आर्मीनिया, साइप्रस और ग्रीक अख़बारों में तुर्की के उपकरणों के असफलता के बारे में खूब लेख प्रकाशित हुए हैं और भारत के जीत को अपने जीत के रूप में इन देशों ने देखा है। ताइवान के बाद इन तीनों देशों में इस तरह उत्साह देखने को मिला है। ताइवान के ख़ुशी का कारण था चीनी एयर डिफेंस सिस्टम का दुनिया के सामने नंगा होना जबकि इन तीनों ने इस हार में तुर्की की हार देखी है। जिस गति से इन तीनों देशों के साथ भारत के संबंध आगे बढ़ रहे हैं, जल्द ही इसके सुखद परिणाम सामने आयेंगे। कौन सोच सकता था कि सुदूर के ये देश भारत के जीत में अपनी जीत देखेंगे?
भारत ने अपना रक्षा बजट 6.25 लाख करोड़ कर लिया है जबकि भारत में फिलहाल रक्षा सामग्री बन रहे है 1.25 लाख करोड़ के। इसमें से 22,000 करोड़ का सामान भारत एक्सपोर्ट कर रहा है जबकि एक लाख करोड़ अपने इस्तेमाल में स्वयं ले रहा है। इस वित्तीय वर्ष में सरकार ने योजना बनायी है कि वह रक्षा सामग्री के उत्पादन को 1.75 लाख करोड़ पर ले जाएगी। ऐसी स्थिति में भारत को और नए पार्टनर चाहिए जो भारत के रक्षा सामग्री को लें। साइप्रस और ग्रीस अब यह जान चुके हैं कि तुर्की के ड्रोन के ख़िलाफ़ भारत का हथियार ही सबसे विश्वसनीय है, अतः आशा की जा रही है कि जल्द से जल्द आर्मेनिया की तरह कुछ और नए पार्टनर हमें मिलेंगे।
तुर्की का भारत के ख़िलाफ़ दुख बहुत ग़लत भी नहीं है लेकिन दुश्मनी तुर्की ने शुरू की थी तो भारत पूरा हिसाब चुकाएगा। तमाम लोगों को यह भी समझ नहीं आ रहा है कि आख़िर अचानक तमाम देश भारत के मुद्दे पर शांत क्यों हो गए? यह याद रखिए, दुनिया में सबसे बड़ा धर्म पैसा है, और सबसे अधिक पैसा हथियार और दवाइयों में है। भारत के हथियारों ने थोड़ा सा अपना दम दिखाया कि बाक़ी दुनिया के वो देश जो इस धंधे में राज कर रहे हैं सहम गए हैं क्यूंकि भारत ऐसा देश है जो या तो एकदम बैठा रहता है अथवा यदि किसी सेक्टर में जाता है तो उसमें अपना एकक्षत्र राज कायम कर एकता है।
यहाँ यदि चार आदमी ई रिक्शा खरीदना शुरू कर दें तो सब ई रिक्शा ही ख़रीदने लगते हैं और रिचार्ज कूपन की दुकान लगाने लगते हैं तो आधा देश रिचार्ज कूपन ही बेचता है। बड़े देशों का भय जायज़ है।

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