सुरेंद्र किशोर : इमर्जेंसी (1975-77)के वे काले दिन..इमर्जेंसी की जरूरत के नकली कारण बताये गये थे..
इमर्जेंसी (1975-77)के वे काले दिन
——————–
शाह आयोग ने कहा था कि इमर्जेंसी लगाने
की घोषणा का निर्णय सिर्फ प्रधान मंत्री का था
इमर्जेंसी की जरूरत के नकली कारण
बताये गये थे
—————–
शाह आयोग ने कहा था कि आपातकाल की घोषणा का निर्णय केवल प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी का था।
सिर्फ गृह मंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी को इसकी पूर्व सूचना दी गई थी। आपात स्थिति की घोषणा के निर्णय पर मुहर लगाने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल की
बैठक बाद में ही बुलाई गई।
सन् 1977 में गठित मोरारजी सरकार ने आपातकाल के दौरान हुई या की गई ज्यादतियों की जांच के लिए शाह आयोग बनाया था।
जे.सी.शाह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके थे।शाह आयोग के निष्कर्ष चैंकाने वाले थे।गोपनीय तथा अति गोपनीय सरकारी कागजात के अध्ययन के बाद आयोग ने यह नतीजा निकाला कि आपातस्थिति की घोषणा के लिए जो कारण बताए गए थे,वे कारण देश में उपस्थित ही नहीं थे।
25 जून 1975 की रात में आपातकाल की घोषणा की गई।उसके बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 27 जून को आकाशवाणी से राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा कि ‘‘हिंसा का वातावरण देश में फैला था।एक व्यक्ति ने यह भी कहा कि अगर फौजी किसी हुक्म को गलत समझें तो उसे न माने।हमारा उद्देश्य देश की अर्थ व्यवस्था सुधारने का भी है।’’
इनके अलावा भी कई कारण बताए गए।
शाह आयोग ने अपनी रपट में कहा कि ‘‘जिन परिस्थितियों में आपात स्थिति की घोषणा हुई और जिस आसानी से उसे लागू कर दिया गया,वह हर नागरिक के लिए चेतावनी-खतरे की घंटी होनी चाहिए।’’
इंदिरा गांधी ने प्रधान मंत्री पद हाथ से निकलते देख आपात की घोषणा का इरादा बनाया।उसे लागू करा दिया।मंत्रिमंडल के सहयोगियों से नहीं पूछा।उन्हें अंधेरे में रखा।इंदिरा गांधी ने चंद लोगेां से सलाह ली ,वह भी अपने फैसले को कानूनी जामा पहनाने के लिए। पूरी सरकार और सरकारी तंत्र संभाल रहे लोगों को उन्होंने अंधेरे में रखा।
याद रहे कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के 12 जून 1975 के निर्णय के बाद इंदिरा गांधी का अपने पद पर बने रहना कठिन हो गया था।अदालत ने राय बरेली से लोक सभा की उनकी सदस्यता रद कर दी थी।उन पर चुनाव में भ्रष्ट तरीका अपनाने का आरोप सिद्ध हो गया था।बाद में आपात काल में संबंधित चुनाव कानून को ही बदल दिया गया और उन्हें पिछली तारीख से लागू भी कर दिया गया ,इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय को पलट देना पड़ा।
25 जून को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद को लिखा कि ‘‘जैसा कि मैंने कुछ देर पहले आपको बताया,हमें सूचना मिली है कि आंतरिक उपद्रवों के कारण भारत की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया है।मैं इस मामले को मंत्रिमंडल के समक्ष लाई होती,लेकिन दुर्भाग्यवश यह आज रात संभव नहीं है।मैं सिफारिश करती हूं कि चाहे जितनी देर हो जाए आज रात ऐसी उद्घोषणा जारी कर दी जाए जिसकी मसविदा आपको भेज रही हूं।’’
पर शाह आयोग ने अपनी रपट में यह भी कहा कि इंदिरा गांधी के पास पर्याप्त समय था,फिर भी उन्होंने आपात लागू करने से पहले मंत्रिमंडल से परामर्श नहीं किया।इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति को गलत सूचना दी।उन्होेंने राष्ट्रपति को जो लिखा कि वे मंत्रिमंडल से सलाह करना चाहती थीं,लेकिन दुर्भाग्यवश वक्त नहीं था,इस तर्क को आयोग ने अविश्वसनीय माना। मात्र नब्बे मिनट की नोटिश पर 26 जून की सुबह मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई जा सकती थी तो 25 जून की रात में मंत्रिमंडल सहयोगियों से परामर्श भी हो सकता था।तब तो सुप्रीम कोर्ट के स्थगन आदेश के बाद छह घंटे का वक्त इसके लिए था। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी को सदन में मतदान करने से रोक दिया था।
आपातकाल के औचित्य की जांच के बाद शाह आयोग ने यह निष्कर्ष निकाला कि 12 जून से 25 जून तक केंद्रीय गृह मंत्रालय को कोई ऐसी रपट नहीं दी गई थी जिसमें कहा गया हो कि आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को खतरा है और उसे बचाने के लिए उपाय किए जाने चाहिए।यानी आयोग के अनुसार आपातकाल की घोषणा के जो कारण बताए गए थे,वे बनावटी थे।
दरअसल असली कारण यह था कि अदालती निर्णय के बावजूद इंदिरा गांधी गद्दी पर बनी रहना चाहती थीं।कांग्रेस एक राजनीतिक दल के तौर पर काम नहीं कर रहा था।वह एक पिछलग्गुओं की जमात थी।यदि लोकतांत्रिक दल होता तो अदालत के फैसले के बाद कांग्रेस कार्य समिति की बैठक होती और उसमें कोई फैसला होता।पर इंदिरा जी को लगता था कि यदि आपातकाल लगाकर चुनाव कानून को नहीं बदला जाएगा तो सुप्रीम कोर्ट का भी वही निर्णय आएगा जो निर्णय इलाहाबाद हाईकोर्ट का था।पर इलाहाबाद कोर्ट के निर्णय के बाद तो प्रधान मंत्री के आवास पर जुट रही भीड़ यही नारा लगा रही थी कि ‘‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे जो भी हो इंदिरा जी हमारी प्रधान मंत्री बनी रहेंगी।’’
