डॉ. भूपेन्द्र सिंह : सावरकर के विचार दबाने व्यक्तिगत छवि पर कुत्सित आक्षेप का प्रयास
सावरकर का हिंदुत्व लोकोन्मुखी था। उनके हिंदुत्व में लोक का हित सन्निहित था। वह किताबों के, शास्त्रों के, रीति रिवाजों के ग़ुलाम नहीं थे, वह लोक की ग़ुलामी करते थे, हिंदुओं की ग़ुलामी करते थे।
उनके विचार आज से सौ वर्ष पूर्व ऐसे थे जैसा आज हम में से अधिकांश कॉमन सेंस रखने वाला हिंदू सोचता है। सावरकर को पचाना जितना कांग्रेसियों, बामपंथियों और विधर्मियों के लिए कठिन है, उसके कहीं ज़्यादा कठिन है वर्णवादी हिंदुओं को।
सावरकर इतने हिम्मती हैं कि वह उस दौर में ऐसी किताब लिखते हैं जो की छपने से पहले ही प्रतिबंधित हो जाती है, तो कभी समुद्र में ऐसी छलांग लगाते हैं कि थोड़ी भी गलती मौत का कारण बनती। कभी वह और उनका परिवार कठिनतम काला पानी की सजा पाता है। सावरकर इतने चालाक हैं कि वह नियमों क़ानूनों से खेलने के लिये फ़्रांस और ब्रिटेन सरकार के बीच मुक़दमा फ़सा देते हैं, वह अपने लक्ष्यों के लिए जेल से निकलने के लिए अंग्रेजों द्वारा ही दी गई व्यवस्था को अपना लेते हैं।
उनकी समझ एकदम स्पष्ट है। वह जब जाति व्यवस्था पर चोट करते हैं तो वह इस मामले में गांधी जी से भी ज़्यादा कठोर दिखते हैं। वह ब्रह्मा तक को चैलेंज कर डालते हैं। वह जब गोमांस के आधार पर धर्म परिवर्तन के कारनामों को देखते हैं तो वह गाय को सामान्य पशु बता डालते हैं। वह केवल मंदिर में दलितों के प्रवेश तक सीमित नहीं रहते, वह पतित पावन मंदिर बनाकर दलितों को पूजारी बना देते हैं। वह अपने घर में घड़े से पानी निकालकर लोगों को उसे पिलाने की जिम्मेदारी भी दलित को ही दे डालते हैं। वह उनका जनेऊ संस्कार भी करा डालते हैं।
जब वह धर्मांतरित लोगों को वापस लाने के रास्ता खोजते हैं तो उसके लिए एक लोटा पानी और एक मंत्र ही काफ़ी होता है।
वह विधवाओं के विवाह के समर्थक होते हैं, उन्हें उन परंपराओं तक से विरोध होता है जहां एक बुजुर्ग व्यक्ति एक कम उम्र के बालिका से विवाह कर लेता है। वह शुद्धतम रूप से स्वतंत्र व्यक्ति थे, उन्हें न किसी किताब की परवाह थी, न परंपरा की, न अपने इमेज की। इसे स्तर की निडरता केवल पिछले एक शताब्दी में भारत में ओशो के भीतर देखने को मिली है।
वह विधर्मियों को तेल नहीं लगाते, वह हिंदुओं के भीतर बैठे बड़े पैमाने पर जातिवादियों का भी तेल मालिश नहीं करते। वह क्रूरता से इन जातिवादियों और कट्टरपंथी जेहादियों की बैंड एक साथ अपने उपन्यास मोपला में बजाते हैं। वह वर्ण के आधार पर गीता के रक्तशुद्धता के सिद्धांत को भी चुनौती देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह सिद्धांत हिंदू समाज के सर्वाइवल को चुनौती दे रहा है। उनका सत्य और धर्म दोनों लोकोन्मुखी है। वह भी फ्रॉड और दिखावटी जंजाल नहीं स्वीकारते। वह सब कुछ जिससे हिंदुओं का भला होगा वहीं उनके लिए धर्म है, वही उनके लिए स्वीकार्य है। वह कोई भी शास्त्र, किताब, रीति, परंपरा जो हिंदुओं के लिए घाटे का सौदा है, वह चाहे जिसने कहा, चाहे जहां लिखा गया हो, वह उनके लिए अस्वीकार्य है।
जातियों का हिंदूकरण, हिंदू का सैनिकीकरण, एकदम स्पष्ट सपाट लक्ष्य। द्वितीय विश्वयुद्ध में गांधी जी भी हिंदुओं को युद्ध में शामिल होने के लिए कह रहे थे और सावरकर भी, लेकिन सावरकर इसलिए कह रहे थे क्योंकि वह हिंदुओं के हाथ में शस्त्र देखना चाहते थे और उसे चलाने का मुफ़्त प्रशिक्षण भी।
उनको समय रहते पता चल गया था कि हिंदुओं के लिए असली ख़तरा अंग्रेज नहीं हैं। हिंदुओं का असली ख़तरा इनके भीतर से इनका जातिवाद और बाहर से विधर्मी हैं। हालाँकि यह बात गांधी और अंबेडकर भी जानते थे इसलिए इन दोनों लोगों ने भी अंग्रेजों से कोई स्पष्ट लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि मिल जुल कर ही चलने का प्रयास किया और ग़ुलामी के उस काल को जातिवाद समाप्त करने में उपयोग में लाया। सावरकर ने जातिवाद पर अपनी स्पष्ट घोषणा तो की ही लेकिन वह विधर्मियों पर भी मुखर रहे, रत्ती भर भी समझौता नहीं, भय नहीं, तुष्टिकरण नहीं। गांधी जहां लोगों को खुशामद से शांत करना चाहते थे वहीं सावरकर जानते थे की वे खुशामद से नहीं मानने वाले। यहीं बात डॉ अंबेडकर भी स्वीकार करते हैं जब वह हिंदुओ से परे लोगों की माँगों को हनुमान जी की पूछ बताते हैं जिसे कभी कोई सरकार या समाज पूर्ण ही नहीं कर सकता।
सावरकर के मृत्यु के पचास साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन कांग्रेसी, बामपंथी, जातिवादी, वर्णवादी, जेहादी सब मिलकर उनको और उनके विचार को इस समाज से भुला देना चाहते हैं क्योंकि सावरकर के विचार इतने तीक्ष्ण हैं कि इन सभी लोगों को एक साथ समाप्त कर सकते हैं। इसलिए सावरकर के विचार से सब बचते है और ज़्यादा से ज़्यादा प्रयास यह करते हैं कि उनके व्यक्तिगत छवि का ही नुक़सान कर दिया जाय लेकिन सावरकर के विचार सत्य हैं, ऐसा सत्य जो धर्म भी है और लोकोन्मुखी भी, इसलिए वह हमेशा प्रासंगिक रहेगा।
उनके जन्म जयंती पर सभी को हार्दिक शुभकामना।
डॉ. भूपेन्द्र सिंह
लोकसंस्कृति विज्ञानी