प्रसिद्ध पातकी : विष्णुसहस्रनाम में पुण्डरीकाक्ष

भगवान का एक नाम है पुण्डरीकाक्ष…….‘‘अमोघ: पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृति:।’’
आपने टीवी रिपोर्टरों को देखा होगा, वे अपनी बात ही शुरू करते हैं, ‘‘देखो..’’। माने वे पहले से ही यह मान कर चलते हैं कि हम बोले चाहे जो भी किंतु जब तक लोग हमें देखेंगे नहीं तो हमारा बोलना सब व्यर्थ होगा। बकवाद होगा। तो हम भक्त लोग भी भगवान को देखते हैं। थोड़ा खुश हो लेते हैं फिर अपनी मन की जेब से डेढ़ मील की फेहरिस्त निकाल लेते हैं..फरमाइशों की। प्रमोशन दे। ट्रांसफर दे। मकान दे। बेटा-बेटी की शादी करवा। बॉस का ट्रांसफर करवा दे अण्डमान आदि आदि।


पर हम क्या वाकई भगवान को देख रहे होते हैं। क्या उनकी आँखों..कमल जैसी आँखों को देख रहे होते हैं। यदि हम पुण्डरीकाक्ष को सही में देख रहे होते तो हम एक भंवरे बन गये होते।
हम वैष्णवों को धनुर्दास के जीवन का एक प्रसंग बहुत ही प्रिय है। उसने भगवान के नेत्रकमल को देखना क्या सीखा लिया, उसका तो मानों जीवन ही बदल गया। वह तो एक लोलुप भंवरे की तरह उन नेत्रकमलों पर अपना जीवन लुटा बैठा। इससे पहले यही धनुर्दास अपनी पत्नी की आंखों को लेकर बुरी तरह दिवाना था। प्राय: जगहंसाई का पात्र बना रहता था। एक बार भगवान रंगनाथ की यात्रा निकल रही थी । सभी भक्त भगवान की यात्रा में उत्साह से झूम रहे थे और यह कामार्पित धनुर्दास अपनी पत्नी के बगल में छाता तानकर चल रहा था और अपनी अर्द्धाग्नि को एकटक निहारे जा रहा था। लोग उसका उपहास कर रहे थे। पर वह उन सबसे बेखबर बस अपनी पत्नी की आंखों में जादू में डूबा हुआ था।
कुछ वैष्णवों ने यतिराज रामानुजाचार्य से धनुर्दास की शिकायत की। आचार्य व्यक्तियों की गहरी पहचान रखते हैं। उन्होंने धनुर्दास को अपने पास बुलाकर पूछा, ‘‘तुम इस स्त्री से ऐसा कौन सा अमृत पा गये हो जो अपनी जगहंसाई भुलाकर महकामुक की तरह इसके पीछे पड़े हो।’’ युवक ने हाथ जोड़कर यतितराज से कहा कि स्वामी, मैंने आज तक इस महिला से सुन्दर आँखें किसी की नहीं देखी? इस पर यतिराज ने कहा कि यदि वह उसे इससे भी सुन्दर आँखें दिखा दे तो क्या वह उनका दास हो जाएगा? धनुर्दास पहले तो इस बात को माना ही नहीं कि जगत में इससे सुन्दर आँखें किसी की हो सकती है। किन्तु यतिराज ने उसे आश्वस्त किया कि आज संध्या के समय वह अपनी बात को प्रमाणित करके दिखाएंगे और इसके लिए संध्या समय उसे रंगनाथ जी के मन्दिर में आना पड़ेगा। यह सुनकर धनुर्दास बोला कि यदि इस सुन्दरी से अधिक सुन्दर किसी के नयन हुए तो वह उसका आजीवन दास हो जाएगा।
संध्या के समय यतिराज धनुर्दास को भगवान की प्रतिमा के समक्ष लेकर गये और उनकी अभ्यर्थना की। फिर उन्होंने कपूर से भगवान की आरती करना प्रारंभ कर दिया। आरती के समय भगवान के कमल दल सदृश विशाल लोचन पर धनुर्दास की हठात् दृष्टि पड़ी। वह अपनी आँख ही नहीं हटा सका। जादूगर का जादू कुछा ऐसा चला कि कुछ ही क्षणों में धनुर्दास के प्रेमाश्रु धारा बह निकली और वह आनन्द के सागर में डूब गया। कुछ समय बाद वह जब प्रकृतिस्थ हुआ तो दौड़कर रोते हुए उसने यतिराज के चरण पकड़ लिये। उसने कहा कि अहो, मेरे समान हीनबुद्धि कौन हो सकता है जो इस सौन्दर्य को छोड़कर नरक के पंक में पड़ा हुआ था। बाद में धनुर्दास एक बहुत बड़े वैष्णव भक्त बने।
भगवान पुण्डरीकाक्ष इसलिए हैं क्योंकि उनके सौन्दर्य का दर्शन करके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। बस हम ही कुछ पाजी हैं कि हमें उस सौन्दर्य को देखना नहीं आता। यह दीगर बात है कि हर मनुष्य दूसरे से यही कहता है, ‘‘देखो…’’
एकादशी की राम राम

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