प्रसिद्ध पातकी: ज्योतिष में भावों का जगत.. सिक्के का दूसरा पहलु भी देखें

ज्योतिष में भावों के तमाम वर्गीकरण किए गये हैं। आम तौर पर केन्द्र यानी लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम और त्रिकोण अर्थात लग्न, पंचम और नवम भाव वर्गीकरण प्रसिद्ध है। चूंकि लग्न केंद्र और त्रिकोण, दोनों में शामिल हैं। अत: इसे अतीव शुभ माना जाता है।

विद्वान कहते हैं कि लग्नेश जिस घर में बैठ जाए, वहां के कारकों की वृद्धि कर देता है। यथा अष्टम भाव भले ही छिद्र भाव हो, पर यह आयु का भी स्थान है। हर ग्रह का अष्टम में जाना अशुभ है। इसमें दो अपवाद ..लग्नेश और शनि हैं। शनि आयुकारक होने के कारण जातक की आयु बढ़ा तो देता है, पर तमाम स्वास्थ्य बाधाओं के साथ। लग्नेश में ऐसी परेशानी नहीं है। इसके विपरीत जब अष्टमेश लग्न में बैठे तो अच्छा नहीं माना जाता। यह आयु को कम करता है। पर मात्र इन सिद्धांतों के आधार पर आयु निर्धारित नहीं करनी चाहिए। उसकी अन्य स्टेंडर्ड विधियां हैं।

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स्थानों के केंद्र के अलावा वर्गीकरण हैं पणफर और आपोक्लिम। 2,5, 8 और 11 भावों को पणफर तथा 3, 6, 8 एवं 12वेंभाव को आपोक्लिम कहते हैं।
इसके अलावा दो अन्य वर्गीकरण हैं, त्रिषडाय और उपचय। त्रिषडाय में 3, 6 एवं 11 भाव आते हैं, जबकि उपचय में 3, 6, 10 एवं 11 भाव आते हैं। यह दोनों वर्गीकरण लगभग समान हैं सिवाय दशम भाव के।
ज्योतिष विद्यार्थियों के मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि जहां एक और त्रिषडाय भावों को बुरा माना जाता है तो उपचय को अपेक्षाकृत अच्छे क्यों हैं? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है और इसका उत्तर सोचने से पहले कुछ अवधारणाओं को समझना होगा। हमारे मनीषी ऋषि-मुनियों ने जब ज्योतिष सिद्धांत निर्धारित किए तो उनकी दृष्टि एवं लक्ष्य आध्यात्मिक विकास था। सांसारिक विकास नहीं। उनका मानना था कि सांसारिक कामों में अधिक उलझे तो आध्यात्मिक यात्रा में भटकाव आएगा। तीसरा भाव श्रम, पुरुषार्थ, छोटी यात्राओं का है। छठा भाव षड् रिपुओं का है। ग्यारहवां भाव आय का है। इनमें उलझे तो गयी भैंस पानी में।
पर ज्योतिष एक विज्ञान भी है। परा विज्ञान। नौ ग्रह और बारह भाव तो ज्यों के त्यों रहे पर समय के साथ मनीषियों की इनके प्रति दृष्टि बदली। पाराशर ऋषि के बाद जैमिनी ऋषि ने जो ज्योतिष नियम बनाये, वे अध्यात्म की दृष्टि में संसारोन्मुखी अधिक हैं। बाद के आचार्यों और दैवज्ञों ने इसी दृष्टि से और परिवर्तन किए।
त्रिषडाय भावों में देखा गया है कि पाप ग्रह अच्छे फल देते हैं।
ये तीनों ग्रह संघर्ष के हैं। यात्रा करने, पराक्रम, पुरुषार्थ हो या शत्रु एवं रोग अथवा आय कमाना हो, इसमें व्यक्ति को लगातार संघर्ष करना पड़ता है। शुभ ग्रह प्राय: सौम्य होते हैं, अत: उनकी तुलना में पाप ग्रह संघर्ष में अधिक सहायक होते हैं। मेडिकल ज्योतिष करने वाले जानते हैं कि रोग के मामले में त्रिषडाय विशेषकर तीसरे एवं 11भावों में बैठा पाप ग्रह रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता अधिक देता है। इसे राहु के उदाहरण से समझे। एक सामान्य समझ है कि छठे भाव में राहु लम्बी आयु देता है। किंतु यह आयु स्वास्थ्य के मामले में तमाम संघर्षों से गुजरती है। अब विचार करने वाली बात है कि पाप ग्रह राहु ने जातक को मजबूत रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता प्रदान की तभी तो वह लम्बे समय तक रोगों से जूझता हुआ, जी पाता है।
अब बात उपचय की करते हैं। यहां दशम भाव भी जुड़ गया। आप जानते हैं कि दशम भाव कुंडली का एक प्रकार से मध्याह्न होता है। यानी आपका सबसे प्रकाशित और ऊर्जावान स्थान। उपचय भावों के स्वामी इस दृष्टि से अच्छे माने जाते हैं कि वे उन्नति करवाते हैं। किंतु तमाम संघर्षों के बाद। सफलता की गारंटी है, किंतु सफलता घर बैठे नहीं मिलेगी। पसीना बहाना पड़ेगा। युक्ति लगानी पड़ेगी।
मैंने ऊपर दृष्टियों की बात की। पाराशर ऋषि से जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें दृष्टियां कितनी बदली, इसका उदाहरण पिछली शताब्दी के महान ज्योतिष के एस कृष्णमूर्ति थे। उन्होंने उपचय भावों में लग्न और द्वितीय को जोड़ते हुए 1,2,3,6,10 और 11वें भाव को इंप्रूविंग यानी उन्नतिकारक भाव बताया है। इनके स्वामी व्यक्ति को सतत उन्नति दिलवाते हैं। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि ये विस्तारित उपचय भाव हैं, इसलिए इसमें बिना पुरुषार्थ, बिना संघर्ष, बिना पसीना बहाये सफलता नहीं मिलती।

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