अमित सिंघल : क्या यही अपेक्षा मोदी के अलावा किसी से की जा सकती है…?

मेडिकल क्षेत्र में किसी नयी दवा या तकनीकी का सत्यापन नियंत्रित परीक्षण (randomized controlled trial) के द्वारा किया जाता है। कुछ मरीजों को क्रमरहित, बेतरतीब तरीके से चुना जाता है. फिर आधे मरीजों को दवा दी जाती है, जबकि अन्य को दवा की जगह कुछ मिलती-जुलती सी चीज़। कुछ समय बाद परिणामो का विश्लेषण किया जाता है। जिन मरीजों को दवा दी जाती है, अगर उन्हें अन्य समूह की तुलना में भारी लाभ होता है तो यह माना जाता है कि दवा प्रभावी है और उसे स्वीकृति दे दी जाती है। यह ट्रायल वैज्ञानिक तरीके से होता है, आकड़ो का बारीकी से विश्लेषण होता है और तब निष्कर्ष निकाला जाता है।

क्या ऐसा ही ट्रायल सरकारी योजनाओ के बारे में भी हो सकता कि कैसे इन योजनाओ से गरीबी उन्मूलन होता है, निर्धन लोग गरीबी के मकड़जाल (poverty trap) में न फंसे, शिक्षा और स्वास्थ्य योजनाओ का लाभ मिले, तथा छोटे उद्यम (जैसे गाँव में परचून, लिट्टी-चोखा या इडली-डोसा की दुकान) लाभ कमा सके?

आर्थिक क्षेत्र में ऐसे ट्रायल के द्वारा अनुभवजन्य निष्कर्ष निकालने के लिए अभिजीत बनर्जी, एस्थर द्युफ्लो, तथा माइकल क्रेमर को वर्ष 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल प्राइज मिला था।

अभिजीत बनर्जी और एस्थर द्युफ्लो ने अपनी पुस्तक “Poor Economics” – जिसे मैं वर्ष 2012 में पढ़ चुका हूँ – में गरीबों के जीवन को बेहतर बनाने के बारे में पाँच प्रमुख बिन्दुओ का उल्लेख किया है।

सर्वप्रथम, गरीबों के पास बहुधा उचित जानकारी की कमी होती है और वे उन चीजों पर विश्वास करते हैं जो सच नहीं हैं। वे बच्चों के टीकाकरण और पीने के साफ़ पानी के लाभों के बारे में अनिश्चित हैं; वे सोचते हैं कि शिक्षा के पहले कुछ वर्षों के दौरान जो कुछ सीखा गया है, उसमें बहुत लाभ नहीं है; वे नहीं जानते कि मलेरिया से निपटने का आसान तरीका क्या है। जब उनकी जानकारी गलत निकल जाती हैं, तो वे गलत निर्णय लेते हैं, जिसके दुष्परिणाम उन्हें झेलने होते है।

द्वितीय, गरीब अपने जीवन के बहुत से पहलुओं की जिम्मेदारी लेते हैं। आप जितने अमीर हैं, आपके लिए उतने ही “सही” फैसले किए जाते हैं, लेकिन गरीबो को उनके भाग्य पे छोड़ दिया जाता है। गरीबों को स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है, जबकि शहरो में शुद्ध पानी की आपूर्ति होती है। यदि वे स्वच्छ पेयजल चाहते हैं, तो उन्हें इसे स्वयं शुद्ध करना होगा। गरीबो को स्वयं यह सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें और उनके बच्चों को पर्याप्त पोषक आहार मिलें, जबकि अमीरो को इस बारे में चिंता नहीं करनी होती।

अस्वच्छ पानी के कारण उनकी लड़किया स्कूल से वंचित रह जायेगी। एक कामवाली, रिक्शेवाले, सड़क पे काम करने वाली महिला के लिए बीमारी का मतलब एक दिन की रोजगारी गयी. उसके पास पेड लीव की सुविधा नहीं है। और कभी गंभीर बीमारी या चोट के कारण उन्हें महीने, दो महीने इलाज करवाना और काम से अनुपस्थित रहना पड़ सकता है। पैसा भी खर्च हुआ और पारिश्रमिक भी नहीं मिला।

तृतीय, गरीबों को बाजार में सामान मंहगा मिलता है। उदहारण के लिए, वे प्रतिदिन की आवश्यकता के अनुसार दाल-चावल, मसाला, चीनी, तेल इत्यादि खरीदते है, जब कि महीने का राशन एक साथ खरीदना सस्ता पड़ता। गरीबों को या तो लोन नहीं मिलता या फिर उस लोन पर ऊंचा ब्याज देना होता है क्योंकि थोड़े से पैसे को संभालने में भी एक निश्चित लागत लगती है।

बनर्जी, द्युफ्लो और उनकी टीम गाँव में स्थित गरीबो के द्वारा चलायी जा रही कई परचून की दुकान पे महीनो तक बैठी। उन्होंने दुकान में रखी हर सामग्री की सूची बनाई, उनकी बिक्री का लेखा-जोखा रखा। बिजली के बिल, सामग्री का नुकसान, कर्ज पे देय ब्याज और घूस का हिसाब रखा। उन्होंने पाया कि सामग्री की मामूली सी चोरी या फिर सामग्री का खराब हो जाना, दुकान में तोड़-फोड़, घूस और ब्याज के दुष्चक्र से निर्धनों को परचून की दुकान से लाभ की जगह हानि ही होती है और वे poverty trap में फंसते जाते है।

चतुर्थ, गलत कार्यक्रम, निम्न गुणवत्ता के शिक्षक और स्वास्थ्य सेवाएं, टूटी-फूंटी सड़कें, दोषपूर्ण नीतिया गरीबों की मदद की जगह उनकी निर्धनता को बनाये रखते है।

अंत में, लोगों की क्षमताओं बारे में अपेक्षाएं – कि कोई व्यक्ति सक्षम है या निकम्मा, अक्सर उन्हें नुकसान पहुँचती है। शिक्षक (और कभी-कभी बच्चो के माता-पिता) यह कहने लगते है कि यह बच्चा स्मार्ट नहीं हैं; फल विक्रेता अपने ऋण को चुकाने का प्रयास नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि या तो वे ऋण नहीं चुका पाएंगे या वह ऋण माफ़ कर दिया जाएगा; नर्सें और डॉक्टर काम पर आना बंद कर देते हैं क्योंकि कोई भी उनसे क्लिनिक में उपस्थित होने की आशा नहीं करता; जिन राजनेताओं से जनता जीवन को बेहतर बनाने की अपेक्षा नहीं करती, वे राजनेता अकर्मण्य हो जाते है। अपेक्षाओं को बदलना आसान नहीं है, लेकिन यह असंभव नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी को गरीबी के दुष्चक्र के बारे में अपनी यायावरी से निकट अनुभव है। उन्होंने निर्धनों के लिए बैंक अकाउंट, लोन, शौचालय, स्वरोजगार, घर, नल से जल, उज्ज्वला गैस, स्वास्थ्य सुविधाएं इत्यादि उपलब्ध करवायी है। अगले वर्ष तक उन्हें मकान और स्वच्छ जल भी मिल जाएगा। कई बार मोदी जी कह चुके है कि अगर कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम निर्धनों का उत्साहवर्धन ही कर दीजिये।

राष्ट्र की अधिसंख्य जनता प्रधानमंत्री मोदी से अपने जीवन को बेहतर बनाने की अपेक्षा करती है। उस अपेक्षा को पूरा करने के लिए वे निस्वार्थ भाव से दिन-रात कार्य कर रहे है।

क्या यही अपेक्षा राहुल-अखिलेश-प्रियंका-ममता से भी की जा सकती है?

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