गुरु घासीदास ने धर्म बदलने की जगह स्वाभिमान के साथ जीने का मार्ग दिखाया

सतनामी पन्थ के संस्थापक : गुरु घासीदास
18 सितम्बर–जन्म-दिवस

छत्तीसगढ़ वन, पर्वत व नदियों से घिरा प्रदेश है। यहाँ प्राचीनकाल से ही ऋषि मुनि आश्रम बनाकर तप करते रहे हैं। ऐसी पवित्र भूमि पर 18 सितम्बर, 1756 (माघ पूर्णिमा) को ग्राम गिरोदपुरी में एक सम्पन्न कृषक परिवार में विलक्षण प्रतिभा के धनी एक बालक ने जन्म लिया। माँ अमरौतिन बाई तथा पिता महँगूदास ने प्यार से उसका नाम घसिया रखा। वही आगे चलकर गुरु घासीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए।

Veerchhattisgarh
अपने ग्रुप्स में शेयर कीजिए।

घासीदास जी प्रायः सोनाखान की पहाड़ियों में जाकर घण्टों ध्यान में बैठे रहते थे। सन्त जगजीवनराम के प्रवचनों का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इससे उनके माता पिता चिन्तित रहते थे। उनका एकमात्र पुत्र कहीं साधु न हो जाए, इस भय से उन्होंने अल्पावस्था में ही उसका विवाह ग्राम सिरपुर के अंजोरी मण्डल की पुत्री सफूरा देवी से कर दिया। इस दम्पति के घर में तीन पुत्र अमरदास, बालकदास, आगरदास तथा एक पुत्री सुभद्रा का जन्म हुआ।

उन दिनों भारत में अंग्रेजों का शासन था। उनके साथ-साथ स्थानीय जमींदार भी निर्धन किसानों पर खूब अत्याचार करते थे। सिंचाई के साधन न होने से प्रायः अकाल और सूखा पड़ता था। किसान, मजदूर भूख से तड़पते हुए प्राण त्याग देते थे; पर इससे शासक वर्ग को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे बचे लोगों से ही पूरा लगान वसूलते थे। हिन्दू समाज अशिक्षा, अन्धविश्वास, जादू टोना, पशुबलि, छुआछूत जैसी कुरीतियों में जकड़ा था। इन समस्याओं पर विचार करने के लिए घासीदास जी घर छोड़कर जंगलों में चले गये। वहाँ छह मास के तप और साधना के बाद 1820 में उन्हें ‘सतनाम ज्ञान’ की प्राप्ति हुई।

अब वे गाँवों में भ्रमण कर सतनाम का प्रचार करने लगे। पहला उपदेश उन्होंने अपने गाँव में ही दिया। उनके विचारों से प्रभावित लोग उन्हें गुरु घासीदास कहने लगे। वे कहते थे कि सतनाम ही ईश्वर है। उन्होंने नरबलि, पशुबलि, मूर्तिपूजा आदि का निषेध किया। पराई स्त्री को माता मानने, पशुओं से दोपहर में काम न लेने, किसी धार्मिक सिद्धान्त का विरोध न करने, अपने परिश्रम की कमाई खाने जैसे उपदेश दिये। वे सभी मनुष्यों को समान मानते थे। जन्म या शरीर के आधार पर भेदभाव के वे विरोधी थे।

धीरे-धीरे उनके साथ चमत्कारों की अनेक कथाएँ जुड़ने लगीं। खेत में काम करते हुए वे प्रायः समाधि में लीन हो जाते थे; पर उनका खेत जुता मिलता था। साँप के काटे को जीवित करना, बिना आग व पानी के भोजन बनाना आदि चमत्कारों की चर्चा होने लगी। निर्धन लोग पण्डों के कर्मकाण्ड से दुःखी थे, जब गुरु घासीदास जी ने इन्हें धर्म का सरल और सस्ता मार्ग दिखाया, तो वंचित वर्ग उनके साथ बड़ी संख्या में जुड़ने लगा।

सतनामी पन्थ के प्रचार से एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि जो निर्धन वर्ग धर्मान्तरित होकर विधर्मियो के चंगुल में फँस रहा था, उसे हिन्दू धर्म में ही स्वाभिमान के साथ जीने का मार्ग मिल गया। गुरु घासीदास जी ने भक्ति की प्रबल धारा से लोगों में नवजीवन की प्रेरणा जगाई। गान्धी जी ने तीन बन्दरों की मूर्ति के माध्यम से ‘बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो’ नामक जिस सूत्र को लोकप्रिय बनाया, उसके प्रणेता गुरु घासीदास जी ही थे।

सतनामी पन्थ के अनुयायी मानते हैं कि ब्रह्मलीन होने के बाद भी गुरुजी प्रायः उनके बीच आकर उन्हें सत्य मार्ग दिखाते रहते हैं।

साभार – नीलेश कुमार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *