सर्वेश तिवारी श्रीमुख : बस यूं ही…

आप मानें न मानें पर यह तो सत्य ही है कि सनातन धर्म केवल एक मान्यता पर चलने वाले लोगों का समूह नहीं। यह एक विराट संस्कृति है, यहाँ एक साथ असंख्य आध्यात्मिक धाराएं बहती हैं। इसी देश में उत्तर दक्षिण से भिन्न है, पूरब पश्चिम से भिन्न है। एक जाति होते हुए भी मैथिल ब्राह्मणों का जीवन अलग है और हिमाचल वालों का अलग। बावजूद सभी हिन्दू हैं, और कोई किसी से आगे या पीछे नहीं है।


गाँव बदलते ही रीतियाँ बदल जाती हैं, परंपराएं बदल जाती हैं। ऐसे में दूसरी धारा की वे परंपराएं जिन्हें आप नहीं मानते, उनका भी सम्मान करना होता है।
अपने आस पड़ोस से ही एक छोटा सा उदाहरण दे रहा हूँ। सामान्यतः मृतक का दाह संस्कार चिता पर लिटा कर किया जाता है। पर अनेक गांवों में एक अजीब परम्परा देखने को मिलती है। मृतक के शरीर को लगभग तोड़ते हुए ऐसा कर दिया जाता है जैसे वह बैठा हो। फिर उसे बीच मे रख कर उसके चारों ओर गोबर का कंडा( गोंयठा या उपला) खड़ा कर उसे जलाया जाता है। यह आपको अजीब लगेगा, पर इस परम्परा के जन्म के पीछे भी कोई न कोई आवश्यक कारण अवश्य ही रहा होगा। लकड़ी की अनुपलब्धता ही सही…
तो क्या ऐसी विविधता होने पर एक दूसरे की परम्पराओं को गाली देते हुए उन्हें खारिज किया जाय? नहीं! यदि आप ऐसा करते हैं, तो यकीन कीजिये आप सनातन परम्परा से भटक चुके हैं।


हिंदुओं में प्राचीन शाक्त, शैव और वैष्णव मत के अतिरिक्त भी जाने कितने सम्प्रदाय रहे हैं।जय महादेव और जय गुरुदेव जैसे कुछ तो बिल्कुल ही नए बने हैं। इन सबको मानने वालों की बड़ी संख्या है। फिर भी, हिंदुओं का लगभग अस्सी फीसदी हिस्सा किसी भी सम्प्रदाय की विधिवत दीक्षा में नहीं है। वह हर मन्दिर में शीश झुका लेता है, हर देवता को पूज लेता है। उसे न वैष्णव नियम याद रह गए हैं, न शैव, न शाक्त… वह कबीरपंथी साधुओं को भी प्रणाम कर लेता है और नाथपन्थ के योगियों को भी… और उस अस्सी फीसदी जनता को यह सहजता इसी धर्म, इसी सनातन संस्कृति ने दी है।
यह जो परम्परा से अपने देश के लिए “अनेकता में एकता” की बात की जाती है न, वह अन्य रिलिजन्स के साथ अनेकता के लिए नहीं की जाती, वह अपने ही सनातन धर्म के भीतर की अनेकता के बावजूद एकता के लिए की जाती है।
तो मित्र! इस अनेकता में एकता को बचाये रखना भी धर्म है। हमारे ही भाइयों की जो परंपराएं हमें पसन्द नहीं, उनके बहाने यदि हम धर्म या पूरी संस्कृति को गाली दे रहे हैं, तो फिर धर्म बचा नहीं हम में…
मैंने कहीं पढ़ा, किसी ने लिखा कि यदि फलां परम्परा धर्म का हिस्सा है तो मैं नहीं मानता इस धर्म को! एक बात बताऊं? यदि कोई व्यक्ति किसी भी बात पर चिढ़ कर यह कह दे रहा है कि ऐसा हुआ तो मैं धर्म को त्याग दूंगा, तो फिर स्पष्ट मानिए उसे त्यागने की जरूरत नहीं, उसमें धर्म बचा ही नहीं है। वह पहले से ही त्याग चुका है।
यह विद्वानों की भूमि है, तार्किकों की भूमि है। और यही कारण है कि कोई भी मत समूची सभ्यता में पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं हुआ। यह बात कोई नहीं कह सकता कि फलां काल में मेरी ही मान्यता समूची हिन्दू जाति में चलती थी। तो हम या आप किसी भी मत के हों, पूरी हिन्दू जनसंख्या हमारे मत को माने ऐसा नहीं हो सकता। बस इतनी सी बात स्वीकार कर लेने की आवश्यकता है।
जय हो। धर्म की जय हो।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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