विष्णु शर्मा : भारतीय शास्त्रों एवं ग्रंथों के साथ विदेशी छेड़छाड़ को समझना जरूरी

हाल में ही माता सीता को लेकर एक अध्यापक विकास दिव्यकीर्ति के बयान पर काफी बवाल हुआ। उन्होंने महाभारत के हवाले से कहा था कि राम ने उनको वैसे ही स्वीकार करने से मना कर दिया जैसे कुत्ते द्वारा चाटे गये घी को सेवन करने से इंकार कर दिया जाता है।
भारतीय शास्त्रों के हवाले से कही गयी किसी बात पर यह कोई पहला विवाद नहीं है और न ही आखिरी विवाद होगा।
भारतीय इतिहास में तमाम विवाद समय समय पर उठते रहे हैं, कभी आर्यों के बाहरी आक्रमण का सिद्धांत, कभी सावरकर के अंग्रेजों का जासूस होने के आरोप, कभी मुगलों को लेकर दावे कि भारत को धर्मनिरपेक्षता उन्होंने सिखाई आदि आदि। ऐसे तमाम आरोप तो इस सूचना युग में गलत भी साबित हो चुके हैं। लेकिन अब राम, सीता और कृष्ण जैसे आराध्यों को निशाने पर लिया जाने लगा है।
ऐसे में अब जरूरत आ गई है कि उन लोगों पर भी सवाल उठाए जाएं, जिन लोगों ने इंडोलॉजी एक्सपर्ट्स होने के नाम पर इन ग्रंथों के यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद किए, या मूल रूप में सहेजा। मैक्समूलर और उनके गैंग के इरादों को लेकर वाकई में एक बड़ी पड़ताल की जरुरत है।
भारत में वेदों को श्रुति कहा जाता है। हजारों सालों से कागज या पांडुलिपि ना होने के जमाने से ही उन्हें कंठस्थ करने की परम्परा रही है। ऐसे में जब भी उनको और उनके बाद के ग्रंथों जैसे उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, भागवद गीता आदि को जिसने भी लिखकर सहेजा होगा, उसकी कॉपी कैसे तैयार की होगी?
तमाम विद्वान राजा महाराजाओं के दरबारों से जुड़कर उनके लिए इन ग्रंथों की कॉपियां तैयार करने का काम करते थे। नालंदा और तक्षशिला जैसी संस्थाएं भी अपने पुस्तकालयों में इन्हें सहेजती थीं, लेकिन विदेशी आक्रमणकारियों ने ऐसे तमाम पुस्तकालयों में आग लगा दी।
ऐसे में कोई भी ग्रंथ आज तक ऐसा नहीं मिला, जो एकदम उसी रूप में हो, जिसमें लिखा गया था। रामायण के उत्तरकांड में तमाम ऐसी बातें हैं, जो शुरूआती अध्यायों की प्रकृति से मेल नहीं खातीं। श्रुति फल भी युद्ध कांड से पहले ही लिख दिया गया था। श्रुति फल यानी ‘जो ये पढ़ै हनुमान चालीसा, होए सिद्ध साखी गौरीसा’, यानी वो अंत में होता है। फिर सीता की अग्नि परीक्षा की बात कब जोड़ी गई, किसी को नहीं पता।
मनु संहिता पर भी तमाम तरह के स्त्री विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं। कहा जाता है कि वेदों को किसी महिला या दलित ने सुन लिया तो उसके कान में पिघला शीशा डाल देना चाहिए।
जिन वेदों की ऋचाएं अपाला, घोषा, रुद्रा जैसी महिला ऋषियों ने लिखी हो, उनको सुनने से महिलाओं को ही वंचित रखना, जिन वेदों को वेदव्यास जैसे दलित मां के बेटे ने संकलित किया हो, उनको दलितों को भी सुनने से वंचित करना, कहीं से तर्कपूर्ण नहीं लगता। यह सब एक साजिश लगती है। मूल ग्रंथों के प्रमाणन के अभाव में इनको साबित करना भी मुश्किल है।
सनातन धर्म के मूल ग्रंथ आधुनिक दुनिया तक आए कैसे? आधुनिक भारत में सबसे पहले इन ग्रंथों का अनुवाद मैक्समूलर और उनके साथियों ने किया। 50 ग्रंथों का एक सेट तैयार किया गया। नाम दिया गया, ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट’। इसमें भारत के धर्मों यानी हिंदू, जैन, बौद्ध ग्रंथ तो थे ही इस्लाम और चीन के कुछ सम्प्रदायों के भी ग्रंथ थे।
कई उपनिषदों और ऋग्वेद का अनुवाद खुद मैक्समूलर ने किया। मॉरिस ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद का, जूलियस ईगलिंग ने शतपथ ब्राह्मण का अनुवाद किया। कई और विशेषज्ञ इसमें शामिल थे, जो यूरोप के कई देशों में अलग अलग क्षेत्रों में काम कर रहे थे, लेकिन धीरे धीरे इंडोलॉजी में एक्सपर्ट हो गए।
जर्मनी में जन्मे मैक्समूलर की भारत को लेकर सोच क्या थी, उनके 25 अगस्त 1866 को लिखे एक पत्र से समझ जाएंगे, “सेंट पॉल के समय रोम या ग्रीस की तुलना में भारत ईसाई धर्म के लिए अधिक परिपक्व है। सड़े हुए पेड़ को कुछ समय के लिए कृत्रिम सहारा दिया गया है, क्योंकि उसका गिरना (ब्रिटिश) सरकार के लिए असुविधाजनक होगा। लेकिन अगर अंग्रेज यह देख लेता है कि पेड़ को देर-सबेर गिरना ही है, तो बात बन गई। मैं अपनी जान देना चाहता हूं, या कम से कम इस संघर्ष को पूरा करने के लिए अपना हाथ आगे बढाना चाहता हूं। मुझे एक ऐसे मिशनरी के रूप में भारत जाना बिल्कुल पसंद नहीं है, जो एक पादरी पर निर्भर रहता है। मुझे दस साल काफी शांति से रहना चाहिए और भाषा सीखनी चाहिए। दोस्त बनाने की कोशिश करनी चाहिए, और देखना चाहिए कि मैं इसके लिए फिट हूं या नहीं। एक ऐसे कार्य में भाग लें, जिसके द्वारा भारतीय पुरोहितों की पुरानी कुरीतियों को उखाड़ फेंका जा सके और सरल ईसाई शिक्षण के प्रवेश के लिए रास्ता खोला जा सके।”
इन लाइनों से उसका एजेंडा साफ हो जाता है और ये मानना थोड़ा मुश्किल ही है कि इस व्यक्ति ने भारत की प्राच्य विरासत को सहेजने का काम ईमानदारी से किया होगा। हालांकि बाद के सालों में उसने वैदिक संस्कृति की काफी तारीफ भी की।
एक बात और नहीं साफ होती कि इन सबके व्यवसाय तो कुछ और थे, लेकिन ये सब यूरोप के अलग अलग देशों से संस्कृत या इंडोलॉजी एक्सपर्ट क्यों बनने में लगे थे? हालांकि संस्कृत के पीछे ये दीवानगी 17वीं सदी से ही होने लगी थी, जब से उसका यूरोपीय भाषाओं से रिश्ता सामने आया था।
एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल के संस्थापक विलियम जोन्स भी मूल रूप से फोर्ट विलियम, कलकत्ता की सुप्रीम कोर्ट के जज थे। उससे पहले इंग्लैंड में सांसद का चुनाव भी लड़े। लेकिन भारत में उन्हें इतिहासकार, प्राच्य विद्या विशेषज्ञ और पुरातत्वविद ही माना जाता है। ये भी आप जान लीजिए कि ये मिस्टर जोन्स ही थे, जिन्होंने भारत में आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत दिया था। वो तो चीनीयों को भी हिंदू क्षत्रिय साबित करने पर तुल गये थे।
जर्मनी के ही एक इंडोलॉजिस्ट थे अल्बेश्ट वेबर। जैन और बौद्ध ग्रंथों के अलावा वैदिक ग्रंथों पर महाशय का काफी काम है। लेकिन रामायण को लेकर वेबर की पूरी कोशिश ये रही कि उसे ग्रीक लेखक होमर की कृतियों से प्रभावित साबित कर दिया जाए। ये अलग बात है कि इस पर तब बड़ी बहस चली, लेकिन वेबर अपने पक्ष में विद्वानों को नहीं ला पाए थे।
एक रूस के महाशय भी थे, नाम था गेरासिम लेबेडेव, जिनके पिता चर्च में काम करते थे और वो खुद भी उस चर्च के कार्यक्रमों में प्रार्थनाएं गाते थे। शुरू से ही धार्मिक माहौल में पले थे, लेकिन एक ब्रिटिश बैंड उन्हें लेकर 1785 में भारत आ गया तो काफी साल यहीं रह गए, बंगाली थिएटर पर काफी काम किया।
यहां आने के बाद ब्राह्मणों पर रिसर्च करने लगे। रूस लौटकर विदेश मंत्रालय से जुड़कर सेंट पीटर्सबर्ग में देवनागरी और बंगाली का प्रिंटिंग हाउस खोला। साथ ही ‘अनबायस्ड ऑब्जरवेशन ऑन ब्राह्मण कस्टम्स’ किताब लिखी। जाहिर है चर्च में पले बढ़े की दूसरे धर्मों के बारे में क्या सोच रही होगी, इसे आसानी से समझा जा सकता है।
यूरोपीय देशों के तथाकथित इंडोलॉडी विद्वानों के, ऐसे तमाम नाम हैं जिन्होंने कई दशक संस्कृत, पाली आदि भाषाओं को दिए। आज के तमाम ग्रंथ उन्हीं के जरिए हम पढ़ते हैं।
प्राचीन ग्रंथों का वर्तमान रूप उन्हीं के कारण है जिसकी वजह से विवाद होते रहते हैं। इन कथित विदेशी विद्वानों में कई दिखाने के लिए अपने को भारत प्रेमी कहते थे, लेकिन 90 फीसदी या तो धर्म प्रचार के लिए आए थे या फिर दौलत और शोहरत कमाने के लिए।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)
– साभार

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