देवांशु झा : हिन्दी का दुर्भाग्य
लगभग दो दशक पुरानी घटना है। दो-चार बरस और पीछे मान लीजिए। हमारे दो परिचित अपनी डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में शर्मिला टैगोर के पास गए। उनसे साक्षात्कार था। तामझाम लगाने के बाद शर्मिला जी से कहा गया कि इंटरव्यू हिन्दी में होगा। विषय भी हिन्दी फिल्मों से सम्बन्धित था।कविवर रवीन्द्र की वंशजा और नवाब साहब की बेगम हिन्दी भाषा के नाम पर उखड़ गईं। उन्होंने कठोर भावमुद्रा के साथ कहा-हिन्दी! हिन्दी इज़ एन एलियन लैंग्वेज! यह सुनकर हमारे परिचितों में से एक असहज हो उठे। उन्होंने भृकुटियां ऊपर कर पूछा कि भला, हिन्दी आपके लिए एलियन लैंग्वेज कैसे हुई? शर्मिला जी ने कुछ अधिक कठोरता से दुहराया-येस! हिन्दी इज़ एन एलियन लैंग्वेज फॉर मी!
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि हिन्दी विरोध के नाम पर इन क्षेत्रीय भाषा भाषियों में कैसा जहर है। जिस अभिनेत्री का पूरा जीवन हिन्दी सिनेमा में अभिनीत किरदारों से जाना गया। जिसकी पूरी पहचान ही हिन्दी की देन रही। वह लाख सत्यजित रे की फिल्म में सर्वप्रथम आने का दम भरती रहें किन्तु उन्हें लोग आराधना, अनुपमा, अमरप्रेम और मौसम के लिए ही जानते हैं।शर्मिला जी हिन्दी सिनेमा के बगैर पटौदी की बेगम से अधिक न रही होतीं। मगर ईर्ष्या, द्रोह, अकड़, एक तरह का मिथ्या श्रेष्ठताबोध और कृतघ्नता का ऐसा उदाहरण आपको कहां मिलेगा?
सत्य यही है कि हिन्दी की विराट भौगोलिक सांस्कृतिक उपस्थिति-स्वीकार्यता के लिए सभी तरसते हैं लेकिन एक बार काम सध जाने पर हिन्दी को हेठा सिद्ध करने में जुट जाते हैं। फिर चाहे वह बंगाली हों या दक्षिण वाले। हिन्दी की वृहत्तर पहचान भी चाहिए और हिन्दी को गरियाने का सर्वाधिकार भी सुरक्षित रहे। इस दुरंगेपन पर कोई क्या ही कहे। आज ही अपने परिचित से शर्मिला जी की कथा साक्षात सुनकर मैं दंग रह गया। धन्य देवी!