मकर संक्रांति 22 december से शुरु…

उत्तरायण तथा मकर संक्रान्ति की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।

( तमसो मा ज्योतिर्मय ! )

आज 22 दिसंबर 2020 को सूर्य की उत्तरायण गति एवं मकर संक्रान्ति के पावन पर्व पर सब महानुभावों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। आप कहेंगे कि स्कूल की पुस्तकों में भी हमने पढ़ा है कि उत्तरी गोलार्ध में 22 दिसंबर सबसे छोटा दिन होता है और सबसे बड़ी रात परन्तु मकर संक्रान्ति तो 14 जनवरी को मनाई जाती है, आप इसे आज मकर संक्रान्ति कैसे कह रहे हैं? सुधी जनों ! शास्त्रों के अनुसार आज ही मकर संक्रांति है।

देखिए महाभारत का प्रमाण :

भीष्म पितामह माघ आता देख कर अहो!अहो! भाव से बोल पड़ते हैं, ” माघोsयं सम्प्राप्तो माष श्रेष्ठः युधिष्ठर: ” । जानने की बात यह है कि उनको इच्छामृत्यु के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा थी , तो माघ के आने की बात कह कर क्यों खुश हो रहे है? क्योंकि उत्तरायण और माघसङ्क्रान्ति एक ही दिन के दो नाम हैं, इसलिए।

अब दूसरा प्रमाण लीजिए। सूर्य सिद्धान्त के मानाध्याय के १०वें श्लोक में कहा गया है –
“भानोर्मकरसंक्रान्तेः षण्मासा: उत्तरायणम्।
कर्कादेस्तु तथैव स्यात् षण्मासा: दक्षिणायनम्।”
अर्थात सूर्य की जिस दिन (दक्षिण परम क्रान्ति के साथ अर्थात २१ या २२ दिसम्बर या तपस या माघ महीने एक गते ) मकर सङ्क्रान्ति होती है और उस ही दिन से छः महीने उत्तरायण के होते हैं। ऐसे ही छः महीने कर्क सङ्क्रान्ति से दक्षिणायन के होते हैं।

एक और स्पष्ट प्रमाण। वराहमिहिर कृत पंचसिद्धांतिका ३/२५ में लिखा है कि *’उद्गायनं मकरादौ ऋतवः शिशिरादयश्च …….’* उत्तरायण तथा सूर्य की मकर सङ्क्रान्ति के साथ ही शिशिर ऋतु भी शुरू होती है।

यदि शास्त्रीय प्रमाण 22 दिसंबर को ही मकर संक्रांति कहते हैं, तो ये सभी ज्योतिषाचार्य 14 जनवरी को मकरसंक्रांति अपने पंचांगों में घोषित करके, इतना अंतर कैसे डाल सकते हैं ? ऐसा है कि पंचांगों में सूर्य की वार्षिक गति 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 10 सेकंड मानी जाती है जब कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा में 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट और 46 सेकेंड लगाती है । इस 20 मिनट और 24 सेकंड के अन्तर के कारण 71 / 72 वर्ष में 1 दिन का अन्तर आ जाता है। यह सब तथाकथित ‘निरयण’ पद्धति से होता है ।

ज्योतिष गणनाओं की २ आधार विधाएँ हैं। एक को ‘निरयण’ और दूसरे को ‘सायन’ कहते हैं।* जो लोग फलित के निमित्त मात्र से काम चालाऊ ज्ञान रखते हैं उनका मानना है कि निरयण ही भारतीय है और सायन, पाश्चात्य या विदेशी है। ये बहुत गलत कथन है। सच्चाई यह है कि ५ -६०० वर्ष पूर्व के किसी भी ज्योतिष ग्रन्थ में निरयण का नाम भी नहीं है और सन्दर्भ और सिद्धान्त ग्रन्थों में जो भी गणनाएं उपलब्ध हैं वे सब ‘सायन’ विधा की ही हैं। सायन का अर्थ है अयनसहित, जो नक्षत्र व ग्रह जहां दृश्य है, उसे वैसा मान कर गणित फल निकालना।

इसके विपरीत निरयण पद्धति में ‘अयनांश’ जोड़ दिया जाता है जिसकी व्यवस्था आकाश में कहीं नहीं है।

इस विकृति को समझाने हेतु , ज्योतिषाचार्य दार्शनेय लिखते हैं :’ निरयण ‘ की शुरुआत आचार्य मुञ्जाल के द्वारा दिए गए एक संशोधन से हुई है। सन् 932 वसन्त -सम्पात ( 21 मार्च) के समय आचार्य मुञ्जाल ने पाया कि हमारी काल गणना (पञ्चाङ्ग) खगोलीय स्थिति के अनुरूप नहीं है। जन्मपत्रियों में इस त्रुटि को सुधारने हेतु, ( पंजाबी जुगाड़ के माफ़िक) “अयनांश” जोड़ कर समाधान निकाला। प्रारम्भ में संशोधन को लोग ठीक- ठीक व्यवहार में ला रहे थे। किन्तु जब ग्रहों की स्थितियां वेधशालों (Observatories) से शुद्ध ली जाने लगी, तब उनमें संशोधन की वह ज़रुरत नहीं रह गयी थी किन्तु अज्ञानवश लोग उस संशोधन को फिर भी लेते रहे और इसका कुपरिणाम यह हुआ कि सही स्थितियों पर संशोधन लगा कर, उन्हें गलत लिया जाने लगा और वो गलती आजतक वैसी ही चल रही है। हम से पहले द्वारका पीठ के जगद्गुरु शंङ्कराचार्य जी महाराज यह महादेश , वह भी आज से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व , जारी कर चुके हैं कि निरयण पञ्चाङ्गों से हिन्दू व्रत एवं पर्वों की अवमानना हो रही है। उसके बाद भी विसाजी रघुनाथ लेले, तुको जी राओ होलकर और शंकर बालकृष्ण जी दीक्षित जैसे बहुत से विद्वान इस दिशा में हिन्दू जनता का मार्गदर्शन कर चुके हैं किन्तु जनता को वे सही शुद्ध पञ्चाङ्ग न दिए जा सकने के कारण , उनके प्रयास व्यावहार में परिणत नहीं हो पाए।

निरयण विधा का सबसे गलत परिणाम यह हुआ कि हम सङ्क्रान्तियां गलत लेने लगे। प्रत्येक महीने की १३, १४ या १५ तारीख में जो सङ्क्रान्तियां ली जाती हैं वो वही निरयण नाम की गलत सङ्क्रान्तियां है जो कि वास्तव में होती ही नहीं हैं, क्योंकि पञ्चाङ्ग का आधार ही सङ्क्रान्तियां होती हैं। अस्तु, दुष्परिणाम यह हुआ कि पञ्चाङ्ग ही गलत बनने लगे। सिद्धान्त यह है कि सङ्क्रान्ति हो जाने के बाद जो चान्द्र मास शुरू होता है, वह उस ही मास के नाम का चान्द्र मास होता है । उदाहरण के लिए चैत्र की सङ्क्रान्ति के बाद जो पहला शुक्ल पक्ष होगा वही चैत्र शुक्ल पक्ष होगा। चैत्र के गलत होने से चैत्रीय नवरात्रे और फिर क्रमशः आगे के सारे त्यौहार गलत हो जाएंगे। यही है जो आज हो रहा है। परिणाम यह है कि आप सारे ही त्यौहार गलत तिथियों में मना रहे हैं। *प्रत्यक्ष उदाहरण देखिये – १६ ऑक्टोवेर २०२० को आपको दीपावली मनानी चाहिए थी, आपने मनाई १४ नवम्बर को जिस दिन की वास्तविक तौर पर दीपावली थी ही नहीं। आपने श्रावण को मलमास की तरह से नहीं जाना किन्तु आश्विन को मल मास जाना जो कि वास्तव में मल मास है नहीं।*

इस संदर्भ में, मलमास के विषय में कुछ जान लेना भी आवश्यक है। संसार में तीन प्रकार के कैलेंडर हैं : सोलर कैलेंडर, सौर वर्ष के अनुसार , जो कि 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट और 46 सेकंड का होता है जैसे कि क्रिश्चियन कैलेंडर। दूसरा है ल्यूनर कैलेंडर ,चान्द्र वर्ष के अनुसार , जो कि 354 दिन और 9 घंटे का होता है जैसे कि मुस्लिम हिज्री कैलेंडर। तीसरा है ल्यूनि-सोलर कैलेंडर, चान्द्र-सौर मिश्रित वर्ष, जैसे कि हिन्दू -विक्रमी कैलेंडर। यह ध्यान देने योग्य बात है कि संसार के सभी धर्मों के पर्व चन्द्र की गति से निर्धारित होते हैं, चाहे वह दीपावली हो , ईस्टर हो या ईद। लूनी – सोलर कैलेंडर में 11 दिन 3 घंटे का जो पारस्परिक अन्तर है , 3 वर्ष में 1 मास बन जाता है। हिंदू कैलेंडर में इस 13वें मास को मलमास / अधिक मास ( Intercalary Month) कहते हैं । यह तेरवां मास गणित में नहीं लिया जाता । पहले दो वर्षों में 11 दिनों की कमी को त्योहारों को सम्बंधित मास में मना कर, सौर वर्ष और चान्द्रमस वर्ष का तादात्म्य बिठा दिया जाता है।

अब निरयण पद्धति से उत्पन्न हुई समस्या का तथ्यपरक विश्लेषण करते हैं।
मकर सङ्क्रान्ति को जिस गलत ढङ्ग से लिया गया है , उस के अन्तर्गत यह कहना सर्वथा एक भ्रम है कि मकर सङ्क्रान्ति प्रतिवर्ष १४ ही जनवरी को होती है। सत्य यह है कि कथित निरयण व्यवस्था की यह मकर सङ्क्रान्ति प्रति ७१-७२ वर्ष में एक दिन आगे खिसकती जाती है। *उदाहरण के लिए यदि आप गुग्गल पर सन १६१५ की मकर सङ्क्रान्ति ढूंढें तो आप देखेंगे कि ०९ जनवरी को मनाई गयी थी।* आप सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 12 जनवरी 1863 ई० को मकर सङ्क्रान्ति के दिन ही हुआ था। अर्थात् 250 वर्ष में यह 3 दिन देर से आई।

यही स्थिति वैशाखी पर्व की है । हम जानते हैं के गुरु गोविंद सिंह जी ने सिख पंथ की स्थापना 1699 में वैशाखी के दिन की थी। यदि आप गूगल में देखें कि उस वर्ष वैशाखी किस तारीख को थी, तो आप पाएंगे कि उस दिन 30 मार्च था। इसी प्रकार 1919 में बैसाख के उत्सव पर ,जलियांवाला बाग की निर्मम घटना 13 अप्रैल को घटी। आजकल हम वैशाखी 14 अप्रैल को मना रहे हैं।

आचार्य दार्शनेय लोकश लिखते हैं : उत्तर भारत के एक प्रसिद्द पञ्चाङ्गकार ( जो ज्योतिष के स्वयं मूर्धन्य विद्वानों में से एक हैं ) ने, कुछ वर्ष पूर्व, मुझे बताया था , “यह सही है कि पञ्चाङ्ग आज गलत बन रहे हैं क्योंकि उनमें मास गणना वास्तविक ऋतुओं से खिसकती जा रही है। इसके बावजूद भी लेकिन यह कैसे सम्भव है कि हम लोगों से कहें कि हमने आज तक जो पञ्चाङ्ग बनाकर आप लोगों को दिए हैं वे सब गलत थे। इसका अर्थ तो ये भी है कि आज तक जो भी जन्म पत्रियाँ लोगों को बना कर दी गयी हैं वे सब व्यर्थ हैं। …… ”

अब इस कारण को तो कोई भी ख़त्म नहीं कर सकेगा, जब तक स्वार्थ रहेगा।
विधि की क्या विडम्बना है जिस देश ने समस्त विश्व को ज्योतिष् का ज्ञान दिया , वह स्वयं ज्योतिष् वेदाङ्ग की अवहेलना कर रहा है। समाज और अध्यात्म पथ के अग्रणी महानुभावों का यह नैतिक एवं सामाजिक दायित्व है कि वे धर्म-परायण जनों के हित एवं श्रद्धा-भाव की रक्षा हेतु, सार्थक कदम उठाएं तथा जो ज्योतिषाचार्य ज्योतिष् शास्त्र के अनुनयन में आईं विकृतियों के निराकरण के लिए समर्पित भाव से कार्यरत हैं, उनका भरसक समर्थन एवं सहयोग करें।

आभार
मैं ज्योतिष् के बारे में अधिक जानकारी नहीं रखता । आदरणीय ज्योतिषाचार्य दार्शनेय लोकेश जी के ज्योतिष् संबंधी लेखों को पढ़कर मैंने यह लेख प्रस्तुत किया है । इसमें किसी महानुभाव को कोई भी शंका हो ,वे शंकासमाधान के लिए, आचार्य लोकेश से संपर्क करें । उनका WhatsApp No है: 9412354036 .
आचार्य लोकेश श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् ( वैदिक पञ्चाङ्ग) के सम्पादक हैं।
गत दो दशकों से पञ्चाङ्ग की विकृतियों के उन्मूलन में संलग्न हैं।
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शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
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Vidyasagar Verma जी के post से साभार।