प्रसिद्ध पातकी : अपरा एकादशी.. विष्णु सहस्रनाम में वीर: और शुर: से आशय

जो लड़े दीन के हेत, सूरा सोई
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भगवान की गीता में प्रसिद्ध उक्ति है कि वह साधु यानी सज्जन पुरुषों एवं भक्तों के परित्राण और दुष्टों का विनाश करने के लिए बार-बार अवतार लेते हैं। यह तो बात भगवान ने कही। किंतु यदि श्रीहरि के विभिन्न अवतारों की कथा पढ़े तो उन्हें अपने दीन और आर्त भक्तों की रक्षा करना अत्यंत प्रिय है। दुष्टों का दलन करने के कारण भगवान की शूरता है, ऐसा कहने से बेहतर है कि उनकी शूरता तो ‘दीनन दुख हरन देव संतन हितकारी’ के कारण ही है।
इसी शूरता का संकेत भीष्म दादा ने विष्णु सहस्रनाम में किया है :
कालनेमिनिहा शौरि: शूर: शूरजनेश्वर: ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेश: केशव: केशिहा हरि:।

इस श्लोक को लेकर पाठ भेद भी हैं। गीता प्रेस द्वारा मुद्रित विष्णु सहस्रनाम में यह श्लोक इस प्रकार आता है :-
कालनेमिनिहा वीर: शौरि: शूरजनेश्वर: ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेश: केशव: केशिहा हरि: ॥

यहां ‘शूर:’ के स्थान पर ‘वीर:’’ का पाठ भेद है। वीरता और शूरता में बस डिग्री का भेद है। शूरता व्यक्ति को एक परम नायक की भूमिका में ले आती है और यही आगे चलकर शौर्य गाथा में बदल जाती है। अब देखिए कि भगवान ‘शौरी’ क्यूं है? भगवान कृष्ण के पिता वसुदेव का नाम शूर भी था और उनके पुत्र होने के कारण भगवान का एक नाम ‘शौरि’ पड़ा। कुछ संस्कृत आचार्यों का मानना है कि उत्पलावर्तक (न मालूम वर्तमान में यह कौन सा स्थान है) में रहने वाले वाले भगवान अच्युत को शौरि कहा जाता है।

अब भगवान के नाम ‘शूर’ को देखें तो चित्रकूट में कमल नयन भगवान श्री राघवेन्द्र ने राक्षसों का विनाश किया था, उसके कारण वह शूर हैं, ऐसा विद्वानों का कथन है। किंतु भगवान की शूरता तो गजेन्द्र की रक्षा करने में है। हर तरफ से निस्सहाय होकर जब कोई भी ‘जंतु’ ईश्वर को बेबसी में पुकारता है तो उस समय भगवान अपने भक्त की रक्षा के लिए जिस प्रकार दौड़ते हैं, वही उनकी शूरता है। यहां ‘जंतु’ शब्द भी मजेदार है। आम बोलचाल में हम लोग कहते हैं, ‘जीव-जंतु’। यानी जो जंतु है, उसमें जीव से थोड़ी भिन्नता है। विष्णु सहस्रनाम के प्रारंभ में युधिष्ठिर जी के कुछ (छह) प्रश्न थे। इनमें अंतिम प्रश्न है कि किसके नाम का जप या उच्चारण करने से ‘जंतु’ का जन्म और संसार से जो बंधन है, वह मुक्त हो जाता है। यहां युधिष्ठिर जी ने मनुष्य के जन्म और संसार से बंधन की मुक्ति के बारे में प्रश्न किया हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने यह प्रश्न ‘जंतुओं’ तक के लिए किया है। मेरा मानना है ‘जंतु’ में आप उन योनियों को भी रख सकते हैं, जिनकी प्रज्ञा का न्यूनतम विकास हुआ है। संस्कृत में किसी भी जन्म लेने वाली सत्ता को जंतु कह सकते हैं।

भगवान सभी की रक्षा करते हैं। और मजेदार बात है कि संकटों में घिरे भक्तों की रक्षा के लिए वे ‘संदेसन खेती’ का काम नहीं करते। वैसे भगवान के पास क्या ऐसे सेवक भक्तों की कमी है, जो उनका संकेत को पाकर कष्टों में घिरे गज जैसे उनके आर्त भक्तों की रक्षा नहीं कर पाते? पर भगवान का हृदय तो भक्त की पुकार को सुनकर ऐसा पसीज जाता है कि उन्हें एक भी क्षण गंवाना भारी लगने लगता है, इसलिए वे स्वयं दौड़कर आर्त जनों की रक्षा करते हैं। चीर हरण के समय द्रौपदी की मार्मिक पुकार को श्रीहरि कैसे अनसुनी कर सकते थे?

अब बात आती है शूरजनेश्वर की। इसका अर्थ हुआ भगवान न केवल स्वयं शूर है वरन् हनुमान लालजी, दादा जामवंत, भीष्म दादा जैसे शूर जनों के ईश्वर भी हैं। ये सब शूर जन भी भगवान से प्रेरणा पाते हैं। ऐसे भगवान नारायण की शूरता हम सब का मार्ग प्रशस्त करें, यही प्रार्थना है।

एकादशी की राम-राम

पुनश्च : आज एकादशी को अपना जन्मदिन है। आपका स्नेहाशीष बना रहे।

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