सर्वेश तिवारी श्रीमुख : ढोल गाँव के मन्दिर पर भी बजना चाहिये.. याद है अंतिम बार भोग के लिए अंशदान कब किया था?

आप किसी भी जाति, वर्ण के हों, आपके गाँव में आपके कुल देवता/ग्राम देवता की डीह होगी। मन्दिर न हो तो कम से कम देवस्थान अवश्य होगा। पहले वहाँ आपकी ही जाति के पुजारी, भगत आदि होते थे। पता कीजियेगा, क्या अब भी वहाँ कोई भगत है? तनिक याद कीजिये, वहाँ अंतिम बार आपके घर से कब भोग चढ़ाया गया था?

सम्भव है वर्षों बीत गए हों। सम्भव है आपको वहाँ गए दसियों वर्ष बीत गए हों। यह भी सम्भव है कि आपको इसके सम्बंध में कोई जानकारी ही न हो। है न?
गाँव में मन्दिर के निर्माण के लिए चंदा लगता है तो हम सभी अपने सामर्थ्य अनुसार दान करते हैं। मन्दिर में किसी आयोजन के लिए भी चंदा दिया जाता है। पर याद कीजिये, मन्दिर में रोज लगाए जाने वाले भोग के लिए आपने अंतिम बार कब पैसे दिए थे? याद है?
आपको पता भी है कि आपके गाँव वाले मन्दिर के पुजारी को कोई वेतन भी दिया जाता है या नहीं? आपने अंतिम बार उन साधु-पुजारी को कब पैसे दिए थे?


शहर के मंदिरों की दशा लगभग ठिक है, पर गाँव के अधिकांश मन्दिर अब धीरे धीरे खाली होते जा रहे हैं। पहले साधू होते थे और वे निःस्वार्थ भाव से मन्दिर की सेवा करते थे। हम दो हमारा एक वाले समय में अब कौन बन रहा है साधु? तो मंदिरों की व्यवस्था के लिए अब साधु के स्थान पर पुजारी रखना पड़ रहा है। पर अधिकांश ग्रामीण मंदिरों में इतनी भी आय नहीं कि ठिक से भोग लग सके। पुजारी का वेतन तो भूल जाइए। रख रखाव और दैनिक खर्च का जुगाड़ करना कठिन हो रहा है। अब सोचिये! इनका ध्यान कौन रखेगा?
तनिक घूम कर देखेंगे तो पाएंगे कि ग्रामीण क्षेत्र के असंख्य मंदिरों में कोई पुजारी तक नहीं है। कौन करेगा? हमारे आपके पास समय है नहीं। ब्राह्मणों ने पिछले साठ सत्तर साल में इतनी गाली सुन ली कि अब कोई पुरोहिती करना नहीं चाहता, मन्दिर पर रहने को तो भूल ही चाहिए। पुजारी बनने का अधिकार मांगने वाले केवल सोशल मीडिया पर बोलते हैं, उन्हें पुजारी बनना नहीं है। बनना होता तो लाखों मन्दिर खाली है, कहीं चले जाते…
जो लोग मूल गाँव छोड़ कर शहरों में बस गए उनसे उनके कुलदेवता की डीह छूटी, ग्राम देवता छूटे, काली-माई, बरम बाबा छूटे। उन देव स्थानों की ओर कभी मुड़ कर देखने का भी समय नहीं, और हमें लगता है कि हम जगे हुए हिन्दू हैं।
जितना मैं समझ पा रहा हूँ, श्रद्धा से अपने गाँव के मन्दिर पर जा कर घण्टे भर बैठने से अच्छी तीर्थयात्रा कोई नहीं। यदि आप उस छोटे मन्दिर की व्यवस्था सुधारने में अपना योगदान दे रहे हैं तो जैसे बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। महीने में एक बार भी मन्दिर का भोग अगर हमारे पैसे से होने लगे तो हम स्वयं को जगा हुआ हिन्दू कह सकते हैं। अपने गाँव जवार के किसी जीर्ण मन्दिर का उद्धार करा दिए, किसी ग्रामदेवता की डीह पर पूजा की परम्परा शुरू करा दिए तो वही बदरी केदार है भाई साहब!
ढोल गाँव के मन्दिर पर भी बजना चाहिये महाराज! ईश्वर वहाँ भी हैं।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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