सुरेंद्र किशोर : ‘‘परिवार में पार्टी’’ और ‘‘पार्टी में परिवार’’ का अंतर समझिए..कृपा सिर्फ सजायाफ्ता नेताओं के लिए…
समानता के अधिकार के खिलाफ
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जेल में रह कर भी कोई व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है,मंत्री
बने रह सकता है किंतु मतदान नहीं कर सकता
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जेल में रह कर भी कोई व्यक्ति
चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल कर सकता है।
मंत्री रहते जेल गया तो भी वह उस पद पर बने रह सकता है।ताजा उदाहरण मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल का है।
किंतु कोई विचाराधीन कैदी मतदान तक नहीं कर सकता।
यदि कोई सरकारी सेवक 48 घंटे से अधिक जेल में रह जाए तो उसे निलंबित होना पड़ेगा।
पर,यह बात किसी प्रधान मंत्री,मुख्य मंत्री या मंत्री पर लागू नहीं है।
यह तो सरासर नाइंसाफी है।
यह हमारे लोकतंत्र की यह विडंबना है।
दरअसल संविधान निर्माताओं ने इस बात की पूर्व कल्पना ही नहीं की थी कि एक दिन हमारे देश में कई जन प्रतिनिधि या मंत्री या मुख्य मंत्री इतने बेशर्म हो जाएंगे।इसीलिए इस संबंध में कोई प्रावधान नहीं किया।
इस देश में कई बार कुछ सांसद और विधायक यह मांग उठा चुके हैं कि उनके वेतन क्रमशः कैबिनेट सेक्रेट्री और मुख्य सचिव से अधिक होना चाहिए।
क्योंकि
‘‘वारंट ऑफ प्रेसिडेंस’’ में उनका स्थान ऊपर है।
किंतु दूसरी ओर वे चाहते हैं कि वैसे नियम उन पर लागू नहीं होना चाहिए जो उनके हितों के प्रतिकूल हांे।
यदि किसी उम्मीदवार के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज हो तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती है।
किंतु अनेक आपराधिक मुकदमों के रहते हुए भी कोई आदतन अपराधी व्यक्ति संसद या विधायिका की सदस्यता के लिए आसानी से उम्मीदवार बन सकता है।
सवाल है कि ब्यूरोक्रेसी की कुर्सी अधिक पवित्र होनी चाहिए या जन प्रतिनिधियों की ?
सन 2013 में मनमोहन सरकार ने एक अध्यादेश तैयार करके राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के यहां भेज दिया था।
उस अध्यादेश के लागू हो जाने के बाद वैसे जन प्रतिनिधियों की सदस्यता भी नहीं जाती जिन्हें दो साल या उससे अधिक की अदालती सजा हुई हो।
उस अध्यादेश का विरोध करते हुए
राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफं्रेस में उस अध्यादेश की प्रति को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया।
उसके बाद मनमोहन सरकार की ध्वनि बदल गई।
अध्यादेश को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
कई लोग कहते हैं कि यदि कांग्रेस में परिवारवाद है तो भाजपा तथा कुछ अन्य दलों में भी तो है !
क्या आज किसी शीर्ष भाजपा नेता के परिवार का कोई युवक मोदी सरकार के किसी अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से फाड़ देगा और मोदी सरकार उस अध्यादेश को वापस ले लेगी ?
‘‘परिवार में पार्टी’’ और ‘‘पार्टी में परिवार’’ का अंतर समझिए।
जिन सजायाफ्ता सांसदों की सदस्यता बचाने के लिए 2013 में वह अध्यादेश तैयार कर राष्ट्रपति को भेजा गया था,उनकी सदस्यता चली गई।
सवाल है कि यदि किसी सरकारी कर्मचारी को दो साल की सजा हो जाए तो उसकी भी नौकरी बचाने का विचार मनमोहन सरकार कर रही थी ?
कत्तई नहीं।
वह प्रस्तावित कृपा सिर्फ सजायाफ्ता नेताओं के लिए थी।