पवन विजय : एक संदेश कथावाचकों के नाम…के नाम पर भीख मांग लें
मेरे पास पैसे आते हैं तो लगता है कि इन पैसों का प्रयोग किसी कल्याणकारी कार्य में किया जाना चाहिए। तमाम बालक ऐसे हैं जिन्हें संस्कृत पढ़ाना, वैदिक ज्ञान देना एक प्रमुख लक्ष्य है। इसके अलावा हिंदुजन की आकस्मिक पीड़ाओं के शमन में अर्थ लगता है।
ढाई सौ से पांच सौ के बैग में मेरा काम चल जाता है। पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के बाद बाकी बचा पैसा समाज के लिए है। जिन्होंने उद्यम से पैसा कमाया है वह पैसों का मनचाहा खर्च करें इसमें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन लाखों का बैग कथा से प्राप्त धन से लेना अनुचित जान पड़ता है क्योंकि वह धन ईश्वर भक्ति को अर्पित था, उसे आप ने अपने लिए खर्च कर लिया।
तुलसी बाबा ने तपसी धनवंत दरिद्र गृही बात लिख कर संकेत किया कि कथाकारों, व्यास पीठों को धन, ब्रांड, बाजार, लस्ट से दूर रहना चाहिए। यह सब सामान्य तम रज प्रवृति के लोगों के लिए है, यदि आपकी प्रवृति सात्विक नहीं तो आप केवल अभिनय कर रहे हैं, मॉडलिंग कर रहे हैं। इसका लॉन्ग टर्म में नुकसान ही होना है।
भारत में कोई गवैया भी यदि भजन गाता है तो समाज की दृष्टि में वह प्रातः पूज्यनीय हो जाता है। भगवान को लेकर भावुक मन हर जगह उन्हें ढूंढने लगता है जिसका फायदा कुछ लोग उठाते हैं।
कथावाचक फटीचर हों यह बिल्कुल अपमानजनक है लेकिन कथावाचक आवश्यकता से अधिक श्रृंगार, अलंकार, धन, वासनायुक्त हो जाएं यह महा अश्लील है।
कथा कहने का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है तो यह एक निहायत घटिया किस्म की मानसिकता है। कथा में सुख संतोष, इंद्रिय निग्रह की बात तो आती होगी, फिर उसी के विपरीत आचरण कथा का माहात्म्य कम कर देता है।
इससे बेहतर है आप राम के नाम पर भीख मांग लें।