मनीष शर्मा : स्वतंत्र वीर सावरकर.. एक ही गोली से मां-बेटे को मारा…
वहीं सावरकर जैसे लोग कालापानी में हंटर खाते थे.. कोल्हू में जुत कर तेल निकालते थे… पेशाब पखाने से भरे काल कोठरी में सड़ते थे…. वहीं कांग्रेस के नेताओं को महलो में नज़रबंद किया जाता है.. सभी सुविधाओं के साथ.
Review शुरू करने से पहले यह कहना चाहूंगा… कि हमारी generation ख़ुशक़िस्मत है, कि हम ऐसे समय में हैं.. जब Information का Flow बेहद व्यापक है.. और ऐसी कई दबी कुचली कहानियाँ हैं, तथ्य हैं.. जो सामने लाये जा रहे हैं.. जिनके बारे में हमें पता ही नहीं था.
फ़िल्म की बात करें… तो Technically बहुत अच्छी बनी है… चाहे Filming हो, art डायरेक्शन हो… Background music हो, डायरेक्शन हो या Acting हो…. अधिकतर Aspects में फ़िल्म अच्छी बन पड़ी है.
कथानक में कहीं कहीं कमी लगती है… वहीं ढेर सारे किरदारों का आना जाना लगा रहता है… इस कारण First Half में फ़िल्म थोड़ी सी भटकी लग सकती है लोगों को…. लेकिन यह भी देखना पड़ेगा कि 7-8 दशकों की कहानी को 3 घंटे से कम समय में दिखाना बेहद मुश्किल काम है….ऊपर से कई नये किरदारों और उनके योगदान को दिखाया गया है….. यही कारण है थोड़े से confusion का.
फ़िल्म की शुरुआत होती है 1896-97 के Plague महामारी से…. कल फ़िल्म देखने से पहले मुझे इस बारे में पता नहीं था. इस महामारी से लाखों लोग मारे गए थे… और इसका प्रकोप सबसे ज्यादा महाराष्ट्र और आस पास के इलाकों में था. कमाल की बात है कि 1897 में पहली बार भारत में Plague के टीके को बनाया गया, उससे पहले इंग्लैंड से आता था.
बहरहाल… फ़िल्म में दिखाया गया है कि भारतीयों की उस समय औकात क्या हुआ करती थी. अंग्रेजों से बचकार भाग रही माँ बेटे को अंग्रेज अफसर एक ही गोली से shoot करता है…. Scene साधारण है, लेकिन इसके मायने बहुत हैं. एक भारतीय इस लायक़ भी नहीं समझा जाता था, कि उस पर गोली waste की जाए.
लाखों मृत भारतीयों को सामूहिक रूप से जलाया गया था… उन्हें अंतिम संस्कार तक मुहैया नहीं था… शायद उसके बाद कोरो-ना काल में हमने यह त्रासदी फिर से देखी.
सावरकर का परिवार तो जैसे अभिशप्त था…. ढेरों जुल्म हुए… उसके बाद भी तीनों बेटे अच्छे पढ़े लिखे और अच्छे प्रोफेशन में आये…. हालांकि मन में जल रही स्वतंत्रता की आग ने उनके रास्ते बदल दिए.
फ़िल्म में एक बात अच्छे से बताई गई है.. जो अभी तक हम सुनते ही आए थे. हमारे क्रांतिकारियों की सेक्रेट सोसाइटी हुआ करती थी… और ना सिर्फ देश भर में, बल्कि जर्मनी, इंग्लैंड, फ़्रांस जैसे देशों में भी भारतीय क्रांतिकारियों का नेटवर्क था.
फ़िल्म में दिखाया है कि कैसे श्याम जी कृष्ण वर्मा, भीकाजी कामा और मदनलाल ढींगरा जैसे लोगों ने विदेश में सेक्रेट नेटवर्क बना रखा था…. इन लोगों ने कई दशकों तक विदेशी धरती पर रह कर भारत की सेवा की.. और ऐसे माहौल में जब उन पर विदेशी सेक्रेट एजेंसीयों की नज़र रहती होगी…. फिर भी यह लोग डिगे नहीं….. यह शायद पहली बार किसी फ़िल्म में इतने व्यापक रूप से दिखाया गया है.
फ़िल्म में कुछ नेताओं के आपसी संवादों को दिखाया गया है… उसमे हो सकता है थोड़ी artistic liberty ली गई हो… जैसे सावरकर -गाँधी, सावरकर-भगत सिंह, सावरकर – सुभाष चन्द्र बोस आदि के संवाद हैं.
फ़िल्म में एक timeline चलती रहती है.. और उस समय की कुछ घटनाओं को दिखाया गया है… इसमें यह भी साफ दिखता है कि कैसे कांग्रेस बनी.. और किस तरह से कांग्रेस के एक ख़ास वर्ग ने आज़ादी की लड़ाई पर एकाधिकार बना लिया.
कुछ क्रन्तिकारी मारे गए.. कुछ को Sideline कर दिया गया…. सावरकर की timeline देखेंगे तो पाएंगे कि वह पुणे के समय से ही आजादी की लड़ाई में नेतृत्व की भूमिका में आ गए थे… फिर लंडन जा कर तो उनका प्रभाव और भी व्याप्त हो गया था… फिर अंग्रेज सरकार ने उन्हें दुगना आजीवन करावास दे कर….और फिर कालापानी भेज कर उन्हें sideline ही कर दिया.
लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद सावरकर ने अपना वजूद बनाये रखा… और अंग्रेज सरकार के सबसे बड़े दुश्मन बने रहे.
फ़िल्म में यह सब दिखाया गया है…. कैसे देश में ब्रिटिश राजघराने के कार्यक्रम होते थे… हमारी तत्कालीन राजनीतिक पार्टियां उनकी जीहुजूरी करती थी… वहीं सावरकर जैसे लोग कालापानी में हंटर खाते थे.. कोल्हू में जुत कर तेल निकालते थे… पेशाब पखाने से भरे काल कोठरी में सड़ते थे…. वहीं कांग्रेस के नेताओं को महलो में नज़रबंद किया जाता है.. सभी सुविधाओं के साथ.
फ़िल्म के इंटरवेल से just पहले कालापानी का अध्याय शुरू होता है… और यकीन मानिये.. यह बड़ा ही खौफनाक दिखाया गया है…ऐसी ऐसी यातनाएं दी जाती थी.. जिसके बारे में सोच कर ही सिहर जाएंगे
फ़िल्म में सावरकर की तथाकथित mercy plea के बारे में खुल कर बताया गया है…. रणदीप ने बकायदा पूरी plea पढ़ी है…. Plea किन परिस्थिती में लिखी गई.. किसके लिए लिखी गई… यह सब देख सुन कर लगता है कि इसमें कुछ भी गलत नहीं था.
फ़िल्म में कई मजबूत तकनीकी पक्ष हैं.. जैसे 4th Wall Break…. रणदीप हुड़्डा ने इसका अच्छा प्रयोग किया है… हिंदुत्व और हिन्दू शब्दों और इनके अर्थ के बारे में बताया है…..जो प्रभावी लगता है… और इन Concepts की साफ विवेचना की गई है.
आजादी के असली कारणों में थे सेकंड world war के बाद इंग्लैंड की बुरी हालत…. Royal नेवी, Airforce की बगावत, नेताजी बोस की आजाद हिन्द फ़ौज के कारनामे…… लेकिन इन तथ्यों को बड़ी ही बारीकी से साफ कर दिया है हमारे इतिहासकारों ने.
फ़िल्म का अंत दिल तोड़ने वाला है…. सावरकर इतना जुल्म झेलते हैं…दोहरे आजीवन करावास पाने वाले एकमात्र स्वतंत्रता सेनानी थे….28 साल जेल में गुजारे…. नौकरी रही नहीं.. पैसा था नहीं… काम धंधा सरकार करने नहीं देती थी…. जैसे तैसे आजादी मिलती है… उसके बाद भी दुःख ख़त्म नहीं होते. महात्मा गाँधी की हत्या के मामले में फँसाया जाता है उन्हें….. उनके भाई की हत्या कर दी जाती है… Mob Lynching की जाती है.. गाँधी की हत्या के आरोप में…. फिर कई साल जेल में डाल दिया जाता है.
जेल से छूटते हैं.. बुढ़ापा भी सही से नहीं बिता पाए…. पाकिस्तान का राष्ट्रपति आता है भारत…. नेहरू जी के आदेश पर सावरकर को 5 दिन के लिए Preventive Detention में डाला जाता है… और फिर सरकार 100 दिनों तक उन्हें जेल में ही रखती है….. सोचिये इतना अन्याय हुआ उनके साथ.
रणदीप हुड़्डा तो जैसे इस रोल के लिए ही धरती पर आये हैं… वो हर सीन में आग उगल रहे हैं… जैसे कि उनके अंदर सावरकर की आत्मा है, और वह अपनी अनकही बातें बताना चाहती हैं. उनके नवयुवक सावरकर का अवतार हो… या इंग्लैंड में Mature होता क्रन्तिकारी हो…. एक गृहस्थ जीवन जीने वाला पति हो… बेटे की मृत्यु से टूटा बाप हो…. कालापानी में खौफनाफ सजाएं पाने वाला कैदी हो….जिंदगी में बार बार चोट खाया इंसान हो…. स्वतंत्रता संग्राम में sideline कर दिया गया सेनानी हो…. अखंड भारत की दिन रात बात करने वाला इंसान हो, जो बंटवारे से इतना परेशान हो गया था कि हृदयघात आ गया था…… मिलिट्री ट्रेनिंग की वकालत करने वाला इंसान हो… या फिर आजादी के बाद भी हर छोटी मोटी बात पर जेल में. डाल दिए जाने वाला व्यक्ति हो… रणदीप हुड़्डा ने हर aspect को दिल दिमाग आत्मा से जिया है…… इस फ़िल्म में रणदीप हैं ही नहीं… जो है वह सावरकर हैं.
मैंने कुछ Videos देखे हैं वीर सावरकर जी के… और हुड़्डा ने उन्हें हुबहू दर्शाया है…. Body language एकदम बेहतरीन है… हाथों का उपयोग करना… दाँत भीच कर बोलना… दांतो का गंदा होना (cellular जेल में कहाँ toothpaste मिलता होगा )… यह सब दिखाया है.. और बिलकुल सच्चा लगता है.
फ़िल्म में जब जब भी महात्मा गाँधी आते हैं.. एक अजीब सी खीज होती है…. यह लगता है कि यह कितने Disconnected थे Ground Realities से.
अन्य कलाकारों जैसे अमित सिआल, अंकिता लोखंडे, राजेश खेड़ा आदि ने कमाल का काम किया है.
फ़िल्म में art डायरेक्शन और sets काफी अच्छे तरीके से बनाये गए हैं. किरदारों के कपडे, रहन सहन, उनका बोल चाल काफी हद तक सटीक है. पुराने समय के पूना, मुंबई, दिल्ली, लंदन आदि को अच्छे से दिखाया है.
कुछ Reviewers ने कहा है कि फ़िल्म में एकतरफा इतिहास ही दिखाया गया है…. जबकि सच यह है कि अब तक हमें एकतरफा इतिहास ही दिखाया जाता है… अब इतिहास के अनकहे अनछुए पहलु दिखाये जा रहे हैं.
कुलमिलाकर यह फ़िल्म देखने लायक़ है… एक तो इसमें ऐसा Subject दिखाया है… जो दिखाने पर किसी को भी typecast कर दिया जायेगा. रणदीप हुड़्डा को पहले दिन से पता होगा, कि यह फ़िल्म बना कर वह अपना करियर दांव पर लगा रहे हैं… हो सकता है उन्हें बॉलीवुड काम ही ना मिले.. या फिर उन्हें Mainstream से अलग कर दिया जाए.. जैसे सावरकर को कर दिया गया था.
रणदीप हुड़्डा ने risk ले कर यह काम किया है… अपनी जिंदगी की सबसे बेहतरीन Performance दी है…. यह performance पिछले कुछ सालों में भारतीय सिनेमा की सबसे बेहतरीन मानी जा सकती है…. और यह कुछ बड़े कारण हैं, इस फ़िल्म को देखने के.