नितिन त्रिपाठी : जब तक यह भरोसे की डोर क़ायम है, मानवता क़ायम है
कॉलेज में जो कल्चरल फंक्शंस होते हैं उनमे अनुशासन संभलना एक बहुत बड़ा टास्क होता है. युवा बच्चे होते हैं ऊर्जा ज्यादा होती है. शोर शराबा, सीटी बाज़ी, हूटिंग, कई बार मार पीट तक बहुत कॉमन होती है. इसी लिये एक अनुशासन समिति बनाई जाती है जिसका कार्य होता है अनुशासन पालन करवाना. मैं इंजीनियरिंग के चारों वर्ष अनुशासन समिति में था. इस लिये नहीं कि सबसे अनुशासित था बल्कि इस लिये कि सबसे बवाली छात्रों में गिनती थी.
कॉलेज की परंपरा थी कि सारे शैतान बच्चे अनुशासन समिति में रख दिये जाते. अब जब स्वयं अनुशासन रखने की ज़िम्मेदारी है तो साम दाम दंड भेद से अनुशासन रखते थे. पद मिलते ही पद की गरिमा आ जाती थी.
यह होता है विश्वास का प्रभाव. एक बार विश्वास व्यक्त किया जाये तो लोग क्या नहीं कर जाते.
किसी भी मंदिर में जाइए. सैंकड़ों स्वयं सेवक लगे रहते हैं लाइन मेण्टेन कराने में. असल जीवन में यह उसी जनता में होते हैं जो जो स्वयं लाइन तोड़ कर दर्शन करना चाहती है. पर एक बार इन पर भरोसा कर इन्हें लाइन कंट्रोल करने में लगा दिया गया, पूरी शक्ति से भरोसे को नहीं टूटने देते.
सामान्य जीवन में विपरीत जेंडर के प्रति आकर्षण स्वाभाविक होता है. पर एक बार विवाह हो जाता है, एक भरोसा होता है व्यक्ति धोखा नहीं देगा और ज़्यादातर लोग इस भरोसे का पालन करते हैं. एक से एक दुष्ट लोग विवाह कर सुधर जाते हैं.
यस भरोसा करना मुश्किल होता है और कई बार करने के पश्चात टूटता है तो कष्ट भी होता है. पर सामान्यतः ज़्यादातर व्यक्ति इस भरोसे के नियम का पालन करते हैं. होते हैं कुछ जो तोड़ते हैं पर उनकी संख्या अभी भी कम है.
जब तक यह भरोसे की डोर क़ायम है, मानवता क़ायम है.