योगी अनुराग : ये पुरी के श्रीजगन्नाथमन्दिर का बड़-देउल है, यानी गर्भगृह का यशस्वी शिखर!

वैसे तो श्रीमन्दिर में प्रवेश द्वार से लेकर गर्भगृह तक कुल पांच (या चार) शिखरनुमा निर्माण दीखते हैं, किन्तु ज़ाहिर है कि बड़-देउल सबसे ऊँचा है। भूमि से दो ढाई सौ फ़ीट ऊँचा यह शिखर कलिंग मन्दिर-वास्तु कला की रेखा-देउल शैली में गढ़ा गया है।

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कलिंग शैली में कुल तीन प्रकार के शिखर गढ़े जाते हैं : रेखा-देउल, पीढ-देउल और खाखरा-देउल। इनमें से पीढ-देउल ही विशुद्ध कलिंग शैली मालूम होती है, वर्गाकार गर्भगृह पर टिका एक चार पृष्ठ वाला पिरामिड। शेष रेखा-देउल को नागर शैली के शिखरों से प्रेरित माना जा सकता है, ज्यों वर्गाकार गर्भगृह के ठीक ऊपर कलश-आमलक लिए शंख जैसा नोंकदार शिखर। और खाखरा की उत्पत्ति द्रविड़ दीखती है, मन्दिर के मुख्यगृह पर चौड़े मस्तक का शिखर।

इन सब शब्दावलियों की चर्चा फिर कभी, फ़िलहाल श्रीजगन्नाथमन्दिर का रेखा-देउल शिखर!

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माना जाता है, कि आज का बड़-देउल वस्तुतः नीलाचल का शिखर-स्वरूप है। प्राचीन उत्कलभूमि के सुदूर पूर्वी तट पर सघन वनों के बीच एक नीलाचल पर्वत हुआ करता था, जिसकी उपात्यकाओं में तमाम वनवासी जातियाँ निवास करती थीं। महाराज विश्ववसु इन वनवासियों के राजा थे। नीलाचल की सर्वोच्च कंदरा में श्रीहरि विष्णु का एक विग्रह “नील-माधव“ राजा-प्रजा समेत समस्त वनवासियों का सेवित-पूजित देव-विग्रह भी विराजमान था और नीलाचल का शिखर उस विग्रह के गर्भगृह का बड़-देउल बनकर खड़ा था।

यों छिटपुट ध्वंसों और नव-निर्माणों को छोड़ दिया जाए, तो श्रीमन्दिर का वर्तमान शिखर ज्ञात इतिहास में बड़-देउल निर्माण का दूसरा प्रयास है। इस शिखर का निर्माण बारहवीं-तेरहवीं सदी के संक्रमण काल में पूर्वीगंग राजवंश के महाराज अनंग भीमदेव द्वारा करवाया गया था। निर्माण की सम्पूर्ण विधि प्राचीन वास्तुकला की एक अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक “शिल्पचन्द्रिका” से ली गई है।

“शिल्पचन्द्रिका” के अनुसार कुल दस एकड़ भूमि पर बने इस मन्दिर-भवन को देवालय कहें, तो बैराज श्रेणी का देवालय मानें और प्रासाद मानें, तो श्रीवत्सखण्डशाल कहें। हालाँकि मूल शिल्पचन्द्रिका अब विलुप्त हो चुकी है। बीती सदी में हुए आधुनिक भारत के महान वास्तुशास्त्री श्री प्रसन्न कुमार आचार्य ने “शिल्पचन्द्रिका” के मूलस्वरूप की अनुपस्थिति के चलते ही इसे अपने समग्र लेखन में कहीं भी अभिहित नहीं किया है। उनका लेखन आज “इनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिन्दू आर्किटेक्चर” के नाम से जगत्प्रसिद्ध है।

बहरहाल, बहरकैफ़।

रेखा-देउल शैली में बने बड़-देउल के स्वरूप को भगवान विष्णु की देह जैसा माना गया है।

भूमि से लेकर गर्भगृह कक्ष के प्रवेश द्वार की ऊँचाई तक का भाग “बाड़ा” कहलाता है, मानो विष्णुदेह में पैरों से कमर तक का भाग हो। श्रीमन्दिर के गर्भगृह की बाह्य दीवारों पर कुछ रचनाएँ भी उकेरी गई हैं, जो समूची बाड़ा-संरचना को कुल पाँच भागों में बाँट रही हैं। समग्र बड़-देउल का भार लिए भूमि पर स्थित नींव वस्तुतः “पग” है। इसी पग पर चलते हुए श्रद्धालु गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। प्रवेश द्वार की ऊँचाई जितने भाग को जंघा कहा जाता है, तल-जंघा और ऊपर-जंघा एवं दोनों के मध्य एक तीन रेखाओं वाली “बन्धन” नक्काशी है।

बाड़ा से ऊपर किन्तु कलश को थामने वाले वर्तुल आमलक से नीचे का भाग “गंडी” कहलाता है, यथा श्रीहरि की कमर से ग्रीवा तक का भाग हो! इसे समान चौड़ाई वाले कुल द्वादश भागों में बाँट कर बनाया गया है। बाड़ा से ठीक ऊपर का भाग “प्रथम भूमि” है, उसके ऊपर “भूमि आमलक” और उसके ऊपर लगातार नौ भाग हैं : द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ… दशम भूमि।

वस्तुतः गंडी ही बड़-देउल की मुख्य देह है। पूर्व या पश्चिम दिशा से देखने पर, बड़-देउल एक आम्र की भांति दिखाई देता है, जिसके आवरण को मानो पाँच बराबर भागों में काटा गया हो, और मध्य विराजमान हैं रस-स्वरूप श्रीजगन्नाथ। ये आवरण प्रवेश द्वार के ठीक ऊपर से आमलक तक जाते हैं। इनमें मध्य के आवरण को राहापग कहते हैं। राहापग के दोनों ओर एक एक अनुरथ-पग होते हैं और अनुरथ-पग के दोनों ओर एक एक कनिका-पग होते हैं।

इन्हीं पंच-पंगों की नक्काशी बड़-देउल का प्रमुख स्वरूप निर्मित करती है!

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गंडी के भूमि-भागों के पश्चात् बड़-देउल का ग्रीवा है और ग्रीवा पर टिका है : बड़-देउल का मस्तक!

दस मील दूर से भी दिखाई देने वाला बड़-देउल का मस्तक, अपने आप में एक चमत्कार है। मस्तक पर सदा एक लाल-पीले वर्ण का त्रिकोणीय ध्वज लहराता है, जिसे सेवायत “बाणा” कहते हैं। बाणा को प्रतिदिन संध्याकाल में बदला जाता है।

बाणा को थामने वाले बाँस की लंबाई करीब चालीस फ़ीट होती है। कहते हैं कि किसी दौर में बाणा की लंबाई इतनी होती थी कि उसका मुख सदा समुद्र में भींजा रहता था, भक्तजन बाणा को पकड़ कर स्नान किया करते थे। किन्तु आजकल बाणा की लंबाई चौदह हाथ होती है!

बाणा के बाँस को सीधे कलश में स्थापित नहीं किया जाता है, अपितु कलश के ठीक ऊपर अष्टधातु से बना पंद्रह फ़ीट व्यास और आठ आरियों वाला एक वृत्ताकार सुदर्शन “नीलचक्र” भी स्थापित है, जोकि बाँस सहित बाणा को संभाले रहता है।

मन्दिर के ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि सन् 1594 ई. के एक दिन, जाने क्यों नीलचक्र टूट कर गिर पड़ा! तब भोइवंश के महाराज रामचंद्र देव प्रथम ने पुनः नया नीलचक्र बनवा कर स्थापित किया था। इस घटना का उल्लेख उत्कल और कलिंग के ऐतिहासिक मादल-पंचांगों में भी मिलता है।

बहुत संभव है कि सुदर्शन का नाम “नील-माधव” के आयुध की स्मृति “नीलचक्र” निश्चित किया गया हो, कौन जाने!

इति नमस्कारान्ते।

 

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