देवांशु झा : वाल्मीकि रामायण.. भारत का पितृसत्तात्मक समाज…!!

इस मनुवादी सभ्यता-संस्कृति पर एक आरोप यह भी लगता रहा है कि यह पितृसत्तात्मक या पुरुषवादी संस्कृति है। बल्कि हिन्दू विरोधियों को यह अत्यंत प्रिय है। इस आरोप को वे कभी भी हम पर उछाल देते हैं। मानों बच्चे खेल-खेल में कंकर झिटकी उछाल रहे हों। इस कथित पुरुष-सत्तात्मक समाज की जड़ें हमारे शास्त्रों में खोजी जाती हैं। और उनके प्रिय शास्त्रों में से एक है–रामायण। रामायण पितृसत्तात्मक समाज की स्थापना करती है! हमें रामायण की ओर देखना चाहिए।‌

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सबसे पहले हम सम्राट दशरथ का उदाहरण लेते हैं। दशरथ का पुरुषवाद कैसा प्रचण्ड है!! दशरथ से उनकी पत्नी कैकेयी कहती हैं कि अपने प्राणप्रिय पुत्र के राज्याभिषेक का विचार त्यागो! सारी तैयारियां भूल जाओ! उसे चौदह वर्ष के लिए वन भेजो! दशरथ जो एक क्षण में कैकेयी के इस दुराग्रह को ठुकरा सकते थे। उन्हें किसी प्रकार की निष्ठुरता करने की आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि यह आग्रह तो अधर्म था। वह अस्वीकार कर राम का राज्याभिषेक कर सकते थे।

किन्तु हाय! दशरथ की पुरुष सत्ता!! वह तो वर्षों पहले अपनी रानी को दिए वचन से बद्ध थे। कैसी पुरुष सत्ता थी कि पत्नी ने प्राण मांग लिए और केवल वचन की मर्यादा के लिए उसे प्राण देने को विवश हुए। अगर स्त्री की उपस्थिति बराबर की न रही होती तो दशरथ झुक जाते?

आगे बढ़िए। राम वन जाने की तैयारी करते हैं। सीता उनसे वाद करती हैं। राम का पुरुष मन सीता के सभी हठों, आग्रहों को ठुकरा सकता था। किन्तु वे तो सीता के सभी तर्क सुनते स्वीकारते हैं और उन्हें अपने साथ वन ले जाने के लिए तैयार हो जाते हैं।

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वाह री पितृसत्ता! सीता को वल्कल वस्त्र में देखकर गुरुवर वशिष्ठ तप्त हो जाते हैं। उनका हृदय विकल हो जाता है। वे कहते हैं:

न गन्तव्यं वनं देव्या सीतया शीलवर्जिते।
अनुष्ठास्यति रामस्य सीता प्रकृतमासनम्।।

सीता वन नहीं जाएंगी। वह राम की अर्द्धांगिनी हैं।‌ सिंहासन पर उनका समान अधिकार है। वह सम्राज्ञी बन उस पर विराजेंगी। वह तो यहां तक कहते हैं कि मैं स्वयं उनका राज्याभिषेक करूंगा। राम को वन जाना है तो अवश्य जाय।

कैसी पितृसत्ता है! कैसा पुरुष प्रधान समाज !!–कि आज से लगभग साढ़े सात हजार वर्ष पहले गुरुवर वशिष्ठ कहते हैं कि राम की अनुपस्थिति में सीता सिंहासन पर विराजेंगी। वह इक्ष्वाकु वंश के अन्य कुलदीपकों का नाम नहीं लेते। संपूर्ण विश्व सभ्यता में से खोज कर ला दीजिए ऐसे प्रतिमान! नहीं मिलेंगे श्रीमान…!!

वनवास के तेरह वर्ष जब तक सीता राम के साथ रहीं–स्त्री मर्यादा, अर्द्धांगिनी के समान अधिकारों के प्रमाण से भरे पड़े हैं। पत्नी और भाभी के लिए वैसे उदात्त भाव ढूंढ़े नहीं मिलते। और पत्नी क्या, स्त्री मात्र के लिए यही विचार हैं। वाली को दण्डित करने के पश्चात श्रीराम क्या कहते हैं।

भ्रातुर्वर्तसि भार्यायां त्यक्त्वा धर्मं सनातनम्।

अपने अनुज की भार्या के साथ पापकर्म कर तुमने सनातन धर्म की मर्यादा को नष्ट किया है। तुम दण्डित किये जाने के अधिकारी हो। क्या पुरुषसत्ता है! जहां भी स्त्री के साथ अन्याय होता है, राम उबल पड़ते हैं। राम के पिता अपनी पत्नी को दिए वचन से बंधकर अपने प्राण गंवा देते हैं किन्तु वचन को तोड़ते नहीं। गुरु कहते हैं कि राम नहीं तो क्या हुआ, सीता ही राजकाज करेंगी! स्वयं राम अपनी प्रिया के लिए वन-वन भटकते हुए, सौ योजन के विराट सागर को बांध कर पार उतरते हैं। युद्ध लड़ते हैं। राक्षस को परास्त कर अपनी पत्नी का मान उन्हें लौटाते हैं। भला यह सब करने की क्या आवश्यकता थी? चुपचाप अयोध्या लौट आते। अन्य राजकुमारी का वरण कर राजपाट संभालते। वाल्मीकि रामायण स्त्री-पुरुष के समान अधिकार की संहिता है। मानव जीवन का आदर्श वहां उच्चतम स्तर पर है।

जिन्हें सीता के परित्याग में राम का पुरुषवादी मन दिखाई देता है, उन्हें भारतीय जीवनधारा में धर्म और कर्तव्य को नए सिरे से समझना होगा। एक महान राजा कैसे मानदंड स्थापित करता है। वहां निजपीड़ा या सीता के वियोग का शोक वही अनुभव करता है जो सीता के परित्याग में राम की विवशता को समझता है। वह त्याग और आत्मध्वंस की पराकाष्ठा है। एक आत्मउन्मूलित माडर्न हिन्दू इस समानता का सार कहां पावेगा। कोदंड रामकथा वाल्मीकि रामायण का सरल सहज रूप है। वह उस महागाथा की विशालता को नहीं छूती।‌केवल संस्पर्श भर पाकर पवित्र हो जाती है।



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