योगी अनुराग : वैदिक जनमानस
हजारों वर्ष ईसा पूर्व में भारतीय समाज कैसा था? लोग अपने दैनिक जीवन में क्या किया करते थे? ग्रंथिक और पुरातात्त्विक अभिलेखों की न्यूनता के कारण, इन प्रश्नों के किसी भी उत्तर में बहुत से अनुमान अवश्य प्रकट होते हैं।

पाश्चात्य हस्तक्षेपों के कारण भारतीय इतिहास की अल्पांश निश्चितता का प्राकट्य केवल मौर्यकाल से ही आरम्भ हो पाता है, जो कि चतुर्थ सदी ईसा पूर्व का समय था। प्रायः विद्वान् भूलवश इसे भारतीय इतिहास का क्षितिज मान लेते हैं! किन्तु इस कथित क्षितिज में झाँक कर उस कालखण्ड के समाज-दर्शन का यत्न भी अवश्य किया जाना चाहिए, जब भारतीय इतिहास की यथार्थ सिद्धि नहीं हुई थी, या कहें कि वह होने न दी गई।
हालाँकि उस कालखण्ड की प्रजा के आर्थिक एवं उत्पादक जीवन के विषय में अधिक विवरण उपलब्ध नहीं, चूँकि आधुनिक दौर में ऐसे इतिहास का प्रश्रय लगभग शून्य ही रहा है! और बिना अन्वेषण के तो साक्षात् प्रमाण भी उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। जो हैं, सो वैदिक साहित्य के बचे-खुचे संहिता ग्रन्थों से प्राप्त तार्किक निष्कर्ष हैं, जिन्हें निर्मम भाषा में अनुमान ही कहा जाएगा।
उपलब्ध साक्ष्यों से प्राप्त निष्कर्ष कुछ यों है कि हजारों वर्ष पूर्व का वैदिक समाज, एक ग्राम्य समाज था, जिसमें कि कृषि और शिल्प ही आजीविका के प्रमुख साधन थे।
ध्यातव्य हो कि शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता में एक अनूठा अध्याय है, जो पुरुषमेध यज्ञ का वर्णन करता है। ये यज्ञ एक वैदिक अनुष्ठान है, जो पुरुष या कहें कि ब्रह्माण्डीय मनुष्य के उस प्रथम बलिदान की स्मृतियों को नए कलेवर में प्रस्तुत करता है, जिससे दृश्य ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ।
इस वैदिक यज्ञ में विभिन्न कुटुम्ब, व्यवसाय और क्षेत्र से आए यज्ञजन, पुरुष के बीजभूत रचनाकृत्य को अधिनियम सरीखा मान कर प्रतीकात्मक बलिदान देते हैं। वाजसनेयी संहिता के तीसवें अध्याय में उन यज्ञजनों की व्यवसाय-सूची अभिहित है, जो इस धर्माचार में प्रतीकात्मक बलि हेतु प्रस्तुत हैं।
अतएव, यह सूची वैदिक समाज के प्रति प्रज्ञाविकास में एक महत्त्वपूर्ण चिह्नक है।
इस वाजसनेयी संहिता ग्रन्थ में वर्णित व्यवसायों की एक विस्तृत और अनूठी सूची में में कतिपय वृत्तियाँ कृषि, व्यापार, पशुपालन, मत्स्याखेट और मदिरा से सम्बद्ध हैं। शिल्प एवं धातुकर्म से सम्बद्ध व्यवसायों का प्रतिनिधित्व लौहकार, स्वर्णकार, रथकार, काष्ठकार, कुम्हार और छवि-निर्माता द्वारा किया जाता है। मणिकार और इत्रकार भी सूचीबद्ध हैं। राजकाज से जुड़ीं वृत्तियाँ भी हैं : कर सङ्ग्रहकर्ता, गुप्तचर, ग्राम प्रधान और परामर्शदाता। सगुनौती व आरोग्य पुरुषों का प्रतिनिधित्व ज्योतिषियों, खगोलविदों एवं चिकित्सकों द्वारा किया जाता है।
मनोरञ्जन व पूजा हेतु शङ्ख, बाँसुरी, तम्बूरा, सारङ्गी, वीणा और बीन के साथ प्रदर्शन करने वाले गायक, अभिनेता, नर्तक और सङ्गीतकार भी अभिहित हैं। ध्यातव्य हो कि कालान्तर में वीणा, बाँसुरी और शंङ्ख का प्रयोग क्रमशः नारद मुनि, भगवान् श्रीकृष्ण व श्रीहरि विष्णु से जुड़ गया और उक्त सब हिन्दूधर्म के स्थायी प्रतीकों में से एक बन गए।
इस सूची में उल्लिखित केवल स्त्रियों द्वारा साधी जाने वाली वृत्तियों और व्यवसायों का वर्णन भी बड़ा रुचिकर है : मादा बेंतकर्मी या टोकरी निर्मात्री, महिला कण्टककर्मी, सूचीकर्म (कढ़ाई) में महिला विशेषज्ञ, मादा धोबी, मादा रञ्जयिता, मादा अञ्जनीकार, मादा म्यान निर्मात्री।
— यह दर्शाता है कि कम से कम एक निश्चित् वर्ग की ही सही, किन्तु स्त्रियाँ भी समाज की आर्थिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से सम्मिलित रहीं हैं।
कुछ समय पश्चात् उपनिषद् काल आया, और महानतम दार्शनिकों में कतिपय स्त्रियाँ भी परिगणित थीं। बौद्धों के पालि-ग्रन्थों में एक विदुषी ब्राह्मणी का उल्लेख मिलता है, जिन पर पुरुषों सहित अनेक शिष्यों के शिक्षण का उत्तरदायित्व था। सनातन धार्मिक कार्यक्षेत्र में भी स्त्रियों की समान व सक्रिय भागीदारी के बिना वैदिक अनुष्ठान सम्भव नहीं!
निष्कर्षत: यह कहने में कोई शङ्का नहीं कि वाजसनेयी संहिता में निहित वृत्तिसूची के आधार पर हम एक सम्पन्न वैदिक समाज पाते हैं, जहाँ पुरुष व स्त्री दोनों ने समाज की आर्थिक गतिविधियों में भाग लिया।
अथर्ववेद का सरसरी पाठन बताता है कि उस समाज की चिन्ताएँ व व्यग्रताएँ भी ठीक वैसे ही अभिप्रायों के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जिन्हें प्रायः इक्कीसवीं सदी में भी देखा जाता है : खण्डित सम्बन्ध, एकतरफा प्रेम और अतृप्त भौतिक इच्छाएँ। उस समाज ने देवताओं से क़ब्ज़, व्यसन, खल्वाटता एवं उदर सम्बन्धी रोगमुक्ति के लिए भी प्रार्थनाएँ की हैं।
वैदिक जनों ने विवाह किया, उत्सव मनाया, नृत्य किया, मदिरा पान किया, विभोर हो कविताएँ लिखीं, द्यूत खेला, युद्ध किए (कभी कभी तो अत्यधिक), देवों-गन्धर्वों को पूजा और सन्तोषप्रद फसल एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना भी की…
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
[ चित्र : इंटरनेट से साभार। ]
