योगी अनुराग : केशव पाराशरन.. सदी के सबसे बड़े राजनीतिक आश्चर्य…

श्री केशव पाराशरन इस सदी के सबसे बड़े राजनीतिक आश्चर्य हैं! सबसे बड़े नहीं तो कमसकम उन्हें टॉप थ्री में शामिल अवश्य ही किया जाना चाहिए।

उनका जन्म कब हुआ? ये तो महज एक संख्या है। महत्त्व इस बात का है कि जन्म कहाँ हुआ? कैसी पृष्ठभूमि में हुआ?

 

-योगी अनुराग (लेखक)

उनका जन्म तमिलभूमि के श्रीरंगम में हुआ था। वे रामासामी पेरियार की शीर्षतम प्रसिद्धि के युग में पले बढ़े हैं। एक ऐसा युग जब तमाम जेनेटिक दावों की उपेक्षा करते हुए दक्षिण भारत अपनी नई अनार्य पहचान बनाने में जुटा था।

चूंकि रामासामी पेरियार ने दक्षिण को उस अपमान के प्रतिशोध आंच में झुलसा दिया था, जो पच्चीस वर्ष की अवस्था में काशी-यात्रा के दौरान व्यक्तिगत रूप से केवल उन्हीं का हुआ था। न कोई उस अपमान का गवाह था और न कोई साक्ष्य!

उत्तर ने कभी नहीं कहा था कि दक्षिण हमारा नहीं है। बल्कि दक्षिण ने स्वायत्त पहचान का झंडा बुलंद किया था, जोकि आज तलक भी सुगबुगा रहा है। श्री पाराशरन का बालपन, उनकी युवावस्था व उनकी प्रौढ़ता तक भी, दक्षिण भारत को उत्तर भारत से उस तरह वैचारिक तकसीम होते देख बीती है।

जहाँ पूरा दक्षिण भारत एक व्यक्ति के व्यक्तिगत अपमान का प्रतिशोध पूरे भारत से ले रहा था, वहीं श्रीरंगम के अयंगर परिवार की भांति कुछ ऐसे परिवार भी थे, जो भारतीय सांस्कृतिक एकता अपने बालकों में संजो रहे थे।

ऐसे ही एक परिवार के मुखिया पिता श्री केशव अयंगर की संतान श्री केशव पाराशरन हुए!

श्री पाराशरन ने राजनीतिक रूप से कांग्रेसी निष्ठा को अपनाते हुए, जीवन के नवें दशक तक भी न धर्म को त्यागा है, न उत्तर भारत को त्यागा है और न ही श्रीराम को त्यागा है।

उनकी कैरियर-गाथा सुनकर, आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि श्रीरामलला के पक्षकारों की वकालत छोड़ने के लिए उनपर कितने दबाव रहे होंगे।

मग़र क्या ज़िगर पाया है उस नब्बे साल के बुज़ुर्ग ने, कि उस योद्धा ने श्रीराम के लिए किसी की कोई परवाह नहीं की!

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श्री पाराशरन राष्ट्रीय दृष्टि में पहली बार तब आए, जब उनके और श्रीमती इंदिरा गांधी के बीच राजनीतिक विश्वसनीयता का खुलासा हुआ!

ये दौर इमरजेंसी का था। राज्यों की सरकारों को बर्खास्त किया जा चुका था, प्रत्येक पर राष्ट्रपति शासन लागू था। ये राष्ट्रपति शासन महज कहने भर की बात होती है, वास्तविक शासन प्रधानमंत्री सहित केंद्रीय मंत्रिमंडल का ही होता है।

तो साहिबान, श्रीमती गांधी ने श्री पाराशरन को तमिल राज्य का एडवोकेट-जनरल नियुक्त किया था। राज्य के शासन हेतु एडवोकेट-जनरल का मायना वही है, जो अटॉर्नी-जनरल का मायना केंद्र सरकार के लिए होता है।

ये पद सरकारों यानी कि मंत्रिमंडल और मंत्रिमंडल के मुखिया को कानूनी सलाह देने के लिए रचा गया है। यही वकील सरकार के पक्ष में खड़ा होकर, सम्बंधित न्यायलय में जिरह करता है।

इनपर अपनी व्यक्तिगत प्रैक्टिस छोड़ देने का कोई संवैधानिक दबाव नहीं होता। मगर फिर भी, न तो ये सरकार के विरुद्ध किसी मुक़दमे के वकील हो सकते हैं और न ही किसी क्रिमिनल को डिफेंड कर सकते हैं।

यही कारण है कि श्री पाराशरन अयोध्या मामले के हिन्दू पक्षकार वकील तो अवश्य रहे। किन्तु फिर भी, वे विवादित ढाँचे को गिराने वाले मामले में आरोपियों के वकील नहीं हैं। पोजिशन की संवैधानिक बाध्यताओं ने उन्हें ऐसा करने से रोका था।

चूंकि सन् तिरासी से लेकर नवासी तक, वे भारत के अटॉर्नी जनरल भी रहे हैं! यानी कि भारत सरकार के वकील। और आप जानते हैं, भारत सरकार का वकील कैसे चुना जाता है?

इस पद हेतु केवल वही व्यक्ति एलिजिबल है, जो सर्वोच्च न्यायालय का जस्टिस बनने की योग्यता रखता हो। ख़ुफ़िया सूत्र बताते हैं कि ये पद अस्सी के दशक में अटॉर्नी-जनरल को भी ऑफर हुआ था, उसकी कीमत थी अयोध्या के हिन्दू पक्षकारों की वकालत त्याग देना।

किन्तु श्री पाराशरन ने वैसा नहीं किया! वे अटॉर्नी-जनरल ही बने रहे, न जस्टिस बने और न ही चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया बनने के मार्ग पर कदम धरा!

यदि ऐसा हुआ होता, सन् नवासी में भी हुआ होता, तो हिन्दू पक्षकारों को बड़ी भागदौड़ हो जाती। कोई नया वकील अवश्य मोर्चा संभाल लेता, किन्तु उसके लिए हज़ारों पृष्ठों को पढ़ना और मुक़दमे को आरंभ से जान पाना बड़ा बड़ा मशक्कत भरा काम होता।

बहरहाल, एक बात यहाँ कह देना आवश्यक है कि श्री पाराशरन ने कांग्रेसी होते हुए भी नेतृत्व को अपने व्यक्तिगत धार्मिक मामले में हस्तक्षेप तो नहीं ही करने दिया, साथ ही अटॉर्नी जनरल रहते हुए श्री राजीव गांधी को भी सद्विचार देकर श्रीरामजन्मभूमि का ताला खुलवाया।

जिस कार्य का श्रेय अक़्सर कांग्रेसी लेते रहते हैं, वास्तव में उस कार्य के पीछे श्री पाराशरन की ही मंत्रणा थी और श्रीराम की प्रेरणा से उनकी मंत्रणा का अनुसरण किया गया!

श्री पाराशरन ने अपने वकालत कैरियर की षष्टिपूर्ति की है, यानी हीरक कालखंड, डायमंड जुबली जोकि वकालत के पेशे में ही नहीं, बल्कि किसी भी पेशे में एक बड़ी बात है।

संस्थानों की षष्ठिपूर्ति हुआ करती है, व्यक्ति की सेवा षष्ठिपूर्ति तक पहुंचे, बड़ा दुर्लभ योग होता है!और इस बेहतरीन षष्ठिपूर्ति की श्री पाराशरन को बहुत बहुत शुभकामनानाएँ। देश का हर एक हिन्दू, हर एक सनातनी और हर एक रामभक्त, श्री केशव पाराशरन का आभार व्यक्त करता है!

इति।

✍️योगी अनुराग ©®

[ चित्र : श्री केशव पाराशरन, अपनी टीम के साथ। ]

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