देवेंद्र सिकरवार : नियति का वचन..जाति और राष्ट्र के प्रश्न शास्त्रार्थों से निर्धारित नहीं होते…

“आर्य! यहाँ…. यहाँ कोई जीवित है।” एक सैनिक ने आवाज दी।

रावी का तट सहस्त्रों सैनिकों से अटा पड़ा था। चारों ओर बहते रक्त के बीच, मृत शरीरों के ढेर, रक्तसमुद्र में द्वीपों की भांति दिख रहे थे और अब उन ढेरों में जीवितों की तलाश जारी थी।

देवेंद्र सिकरवार : लेखक, इतिहासकार। रामायणकाल से चार पीढ़ी पूर्व पर आधारित यह लेख। ऐश्वर्य सांकृत्य वेदव्यास भी पद ही था। कृष्णद्वैपायन तेईसवें व्यास थे और यह घटना दाशराज्ञ युद्ध, रामायणकाल से पूर्व की यह घटना इतिहास का टर्निंग प्वाइंट थी।

सैनिक की पुकार पर सारे लोग वहाँ पहुँच गये।

वह चारों ओर लोथों से घिरा हुआ था। ये उन सैनिकों के शरीर थे, जिनसे युध्द करता हुआ वह भूशायी हुआ था।

उसकी मुष्टि अभी भी खड्ग की मूठ पर कसी हुई थी।

उसके मुँह पर पानी छिड़का गया।

“अरे! यह तो ‘भेद’ है, शंबर का पुत्र।” एक सैनिक बोला।

“वैद्यराज!”

वैद्य ने नाड़ी पर हाथ रखा और निराशा से सिर हिलाया, “रक्तस्राव बहुत हो चुका। बचना मुश्किल है। महर्षि व चक्रवर्ती को बुलाओ।”

वे आये।

सप्तसिंधु के विजेता चक्रवर्ती सुदास और उनके पार्श्व में, हिमश्वेत जटाओं व श्मश्रुओं से गौरवमण्डित, आर्यत्व के प्रतीक, हिमालय के समान भव्य ब्रह्मर्षि मैत्रावरुण वसिष्ठ।

ब्रह्मर्षि ने नासत्य युगलों का आह्वान करते हुए कमंडलु से भेद पर जल छिड़का और मानो चमत्कार हुआ।

भेद ने आँखें खोल दी।

“तुम चक्रवर्ती सुदास व ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के सामने हो।” वैद्य ने धीरे से बताया।

भेद की बुझती हुई आँखों में अग्नि दहक उठी और शरीर में हलचल हुई। परन्तु शरीर की अशक्तता को समझ उसने अपना मुँह फेर लिया।

शत्रुता का इतना निर्वाह ही वह कर सका।

“यम द्वार पर भी अनार्य की ऐंठ कम नहीं हुई।” सुदास ने व्यंग्य किया।

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की भृकुटियों में बल पड़ गया। स्पष्टतः उन्हें सुदास की बात अच्छी नहीं लगी।

परन्तु भेद के भीतर का योद्धा चुप नहीं रहा।

“कौन अनार्य? अनार्य तो तुम हो सुदास जिन्होंने हमारा, हम शबर आर्यों का पशुओं के समान आखेट किया; देवराज इंद्र के द्वारा पीछे से वार करवाकर आर्य नियमों से द्रोह किया।” हांफते हुए भेद बोला।

“आर्य और तुम शांबर? नकटे अनास कबसे आर्य हो गए??” सुदास ने उपहास किया।

“मौन हो जाओ सुदास”- ब्रह्मर्षि के आदेश में अप्रत्याशित कठोरता थी।

सुदास सिटपिटाकर चुप हो गए, लेकिन भेद नहीं। अब वह ब्रह्मर्षि से संबोधित हुआ।

“अब आप इन्हें चुप क्यों करा रहे हैं ब्रह्मर्षि। सब कुछ आपका ही तो किया धरा है। आपने ही हमारे आर्यत्व को अस्वीकार किया। आपने आर्यत्व को जन्म और रंग से जोड़ा…..”- भेद ने मुँह से रक्त उगल दिया।

वैद्य के आगे बढ़ने से पूर्व ही वसिष्ठ आगे बढ़े और ममत्वपूर्वक भेद का सिर अपनी गोद में रख लिया।

भेद इस अप्रत्याशित व्यवहार से अटपटा गया।

ब्रह्मर्षि ने अपने श्वेत उत्तरीय से भेद का रक्त पोंछा।

“भेद अगर मुझे समझ सकते हो तो समझो। जाति और राष्ट्र के प्रश्न, शास्त्रार्थों से निर्धारित नहीं होते, उनका निर्णय युद्ध भूमि में रक्त बहाकर किया जाता है।”

महर्षि की आँखों में अश्रु और वाणी में कंपन था।

“जिस आर्यत्व की रक्षा के लिए मैं प्रयत्नशील था, उसे विश्वरथ ने गायत्री महाविद्या के द्वारा दिग्दिगन्त में प्रसारित कर दिया है।”

“मैं दाशराज्ञ जीतकर भी हार गया और विश्वरथ हार कर भी जीत गए, क्योंकि उन्होंने तुम जैसे सहस्त्रों मनुष्यों को आर्यत्व की दीक्षा दी है।”

महर्षि ने ममत्व से भेद के सिर पर हाथ फेरा।

“भेद! मैं आर्य पैदा हुआ, परंतु तुमने आर्यत्व अर्जित किया है। तुम और हर एक व्यक्ति, जिसे आर्यत्व में श्रद्धा है, आज से उतना ही आर्य होगा जितना कि वसिष्ठ या सुदास।”

भेद की आँखें डबडबा आईं और उसने हाथ जोड़कर महर्षि को प्रणाम किया।

उसकी आँखें बंद होने लगीं लेकिन होंठ
बुदबुदा रहे थे-

‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’

भेद का सिर एक ओर ढुलक गया।

महर्षि की आँखों से अश्रु टपक रहे थे।

“आर्य भेद की ससम्मान अंत्येष्टि का प्रबंध किया जाए।” महर्षि ने आदेश दिया।

“एक दिन संपूर्ण आर्यावर्त के सर्वोच्च सिंहासन पर तुम्हारे ही समान आर्यत्व में श्रद्धा रखने वाला तुम्हारा वंशज विराजमान होगा।” भेद की चिता की लपटों को देखते हुए वसिष्ठ धीरे से बोले, जिसे सिर्फ नियति ने सुना और अपने स्मरणकोश में रख लिया।
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आर्यत्व में, हिंदुत्व में अगाध निष्ठा रखने वाली महामहीयसी द्रौपदी मुर्मू के भारत गणराज्य के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में चुनाव के साथ ही नियति का वह वचन आज पूर्ण हुआ।

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