पंकज कुमार झा : बौद्धिक बेइमानी.. 80 करोड़ भूखे लोगों की बात उस समूह से जिनका जीवन इस रोल मॉडल की बात करते बीत गया
हम सभी जानते हैं कि मोदीजी की सरकार देश के 81.35 करोड़ लोगों को बिना नागा हर महीने निःशुल्क अनाज उपलब्ध करा रही है। जीवन भर ऐसी व्यवस्था की वकालत करने वाले तत्व अब इसकी ऐसी व्याख्या कर रहे हैं कि देश में भुखमरी है, इसलिए ऐसा किया जा रहा है। अभी एक पत्रकार मित्र का वाल देखा कि देश में 80 करोड़ लोग भूखे हैं, और लोग औरंगजेब पर विमर्श कर रहे हैं। जाहिर है उन्हें कष्ट इसका अधिक है कि लोग ‘छावा’ देखने क्यों जा रहे हैं।
उस पटल पर आयी टिप्पणियों का जवाब थोड़ा लंबा हो गया था। सो, यहां भी अपनी टिप्पणी को संपादित कर यहां डाल रहा हूं ताकि इस पक्ष को बेहतर तरीके से समझने में सहायता मिले। रुचि हो तो पढ़ें कृपया :- 👇
जिन्हें राशन मिल रहा है, उन्हें निकम्मा और भूखा कहने पर क्या ही जवाब दिया जाय? हम सभी कुछ न कुछ मुफ्त लेते ही हैं समाज से, सरकार से। हमने लगभग मुफ्त शिक्षा लिया हुआ है, क्या वह नहीं लेना था? स्वास्थ्य, सड़क समेत ऐसी दर्जनों सुविधायें हैं जिसके लिये हम सीधे तौर पर भुगतान नहीं करते हैं। ऐसा नहीं होता है कि शासकीय सड़कों पर दो किलोमीटर पैदल चलने के लिए उसका बिल देना पड़े।
ऐसा ही मामला खाद्यान्न का भी है। कृषि अनुदान और खाद्यान्न सहायता, ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी हुई चीजें हैं। दुनिया के लगभग हर विकसित और अमीर देशों में भी ऐसा ही होता है। सोश्यल सिक्योरिटी बेहतर होने का अर्थ हमेशा यही नहीं होता कि दारिद्र्य के कारण ऐसा है, इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि समाज सक्षम है यह देने के लिए, इसीलिए दिया जा रहा है। यह वो जमाना नहीं है जब अमेरिका से गेहूं ला कर भूखी जनता को खिलाना होता था। यह देश का अनाज है, देश के काम आ रहा है। किसानों को अच्छी कीमत भी मिल रहा है।

हम सब जानते हैं कि आप किसानों को बिना एमएसपी दिये कोई इकॉनोमी नहीं चला सकते। बाजार से प्रतिस्पर्धा किसी भी अर्थव्यवस्था में किसान नहीं कर सकते। मांग और आपूर्ति का संतुलन हमेशा किसानों के विरुद्ध लगभग सभी अर्थव्यवस्थाओं में है। इसलिए हर कल्याणकारी राज्य इसमें हस्तक्षेप कर किसानों की सहायता करता है। यह वही हस्तक्षेप है जिसे हम ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ कहते हैं।
अब जब सरकार करोड़ों टन अनाज खरीद लेती है, तो उस अनाज का क्या किया जाय? क्या इससे बेहतर और कोई व्यवस्था हो सकता है कि उसे देश में उन सबों के बीच बांट दो, जो लेना चाहें। इतनी सामान्य सी बात न समझते हुए सीधे सामान्यीकरण कर देना कि 80 करोड़ लोग भूखे हैं, इस ग्रंथि को क्या ही कहा जाय?
कभी भी कृषि और खाद्यान्न के मामले में ‘मिनिमम गवर्नेंस’ नहीं लागू हो सकता। मिनिमम गवर्नेंस का आशय यह है कि सरकार को होटल, विमान सेवा आदि नहीं चलाना चाहिये। न कि यह कि कृषि से हाथ खींच लेना चाहिए। कृषि और जन वितरण प्रणाली, ये दोनों शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह सरकार को अपने हाथ में रखना ही होगा।
आश्चर्य यह है कि 80 करोड़ भूखे लोगों वाली बात उस समूह से आ रही है, जिनका सारा जीवन ही इस मॉडल की वकालत करते हुए गुजरा है। इस बौद्धिक बेईमानी का क्या कहा जाय कि अपने ही विचारों के विरुद्ध वे अब ऐसा नैरेटिव ले कर आ रहे हैं।
आज भी कथित किसान आंदोलन हो रहा है कि एमएसपी को कानूनी अधिकार मिले, लेकिन एमएसपी से उपार्जित किए अनाज का किया क्या जाय, इस पर सभी मौन हैं। यही किया जायेगा कि दाना-दाना खरीदिये और उसे देश में बांट दीजिये। वेद वाक्य भी यही है – सौ हाथों से उपार्जित कीजिये, हजार हाथों से बांटिये। मिनिमम गवर्नमेंट का आशय यही है कि इस अरबों क्विंटल अनाज को बेचने के लिए किराना की दुकान न खोल ले सरकार।
यहां इसलिए इतना विस्तार से लिखा है ताकि इस बहाने जो लोग वास्तविकता समझना चाहते हों, उन्हें यह पूरी विचार प्रक्रिया समझायी जा सके। जिन्हें कुछ भी नहीं समझना है और हर हाल में बस रोना है, उन्हें क्या ही कहा जाय!
और हां… औरंगजेब विमर्श करने वाले अलग हैं, धान रोपने वाले अलग, अनाज बांटने वाले अलग। समाज में सबका काम बंटा हुआ है। कोई भी धान रोपना छोड़ कर ‘छावा’ देखने नहीं पहुंच रहा है। सो सबको अपना काम करने दिया जाय, इसलिए धान का उत्पादन एक किलो भी कम नहीं हुआ है क्योंकि लोगों ने छावा या कश्मीर फाइल देख ली। चलने दीजिए सभी कार्य साथ-साथ, विमर्श भी।
ठीक है ?
