वीर सावरकर का ग्रंथ नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में लड़े  3रे स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों की “गीता”…बना मूल मंत्र 

23 जनवरी का इस वर्ष से भारत के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान हो जायेगा। ऐसा नहीं था की इस दिन की पहले कोई विशेषता नहीं थी, लेकिन इस साल जो कुछ भी घटित होने वाला है वह विशेष है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस जिनको राजनितिक षड्यंत्रों के तहत इतिहास से गायब करने के कुत्सित प्रयास हुए है, उनसे जुड़े सभी रहस्यों का पर्दाफास होने की प्रक्रिया अब शुरू हो गयी है, भले ही किसी भय या मजबूरी वश सरकारें माने या न माने। देश अब नेताजी को वास्तव में एक अलग दृष्टि से देखने लगा है।

सशस्त्र क्रांति का समर्थन, अभिनव भारत का सैन्य विद्रोह, 1857 का स्वातंत्र्य समर, जोसेफ मैजिनी के जीवनी की प्रस्तावना और रासबिहारी बोस व स्वातंत्र्यवीर सावरकर के मध्य हुए गुप्त पत्र व्यवहारों के अध्ययन के बाद एक सबसे बड़ी सच्चाई जो सामने आती है वो ये है कि, नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर के मार्गों का अनुसरण किया था।

 

नेताजी सुभाषचंद्र बोस आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर थे। उनका दिया ‘जय हिंद’ का नारा पूरे विश्व में आज भी लगता है। नेताजी सशस्त्र क्रांति के जिस मार्ग का अनुसरण करते थे और जिसका बहुत सम्मान करते थे उनका नाम है स्वातंत्र्यवीर सावरकर। इन दोनों नेताओं के विचारों में स्वतंत्रता क्रांति को लेकर बहुत सारी एकरूपता थी।

भारत के दो महान क्रांतिकारी नेतृत्वों ने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए सशस्त्र क्रांति को मार्ग स्वीकार किया था। नेताजी ने कहा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा’ तो स्वातंत्र्यवीर सावरकर का युवाओं के लिए मंत्र था कि, ‘हिंदू युवकों, तरुणियों के केशों में घूमनेवाली तुम्हारी उंगलियां जब बंदूक की ट्रिगर पर घूमने लगेंगी तभी और सिर्फ तभी हिंदुस्थान जगेगा’

अब बात उस दिन कि जब मुंबई में नेताजी सुभाषचंद्र बोस आए थे और उन्होंने स्वातंत्र्यवीर सावरकर से भेंट की। वैसे इन दोनों क्रांतिकारी नेताओं के मध्य कुल तीन भेंट हुई थीं। जिसमें से कि पहली भेंट किसी गुप्त स्थान पर हुई थी। लेकिन दूसरी भेंट 4 मार्च, 1938 को हुई। इस समय तक नेताजी सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे। वे मुंबई में जब स्वातंत्र्यवीर से मिले तो उन्होंने स्वातंत्र्यवीर से कांग्रेस से जुड़ने का आग्रह किया। इस पर इन दोनों नेताओं की बृहद् चर्चा हुई।

 

 

स्वातंत्र्यवीर ने सुभाषचंद्र बोस से कहा कि, कांग्रेस हिंदू महासभा को जातिवादी संस्था मानती है और जातीयतावादी संस्था का पदाधिकारी कांग्रेस में किसी पद पर नहीं बैठ सकता। इसलिए कांग्रेस में रहकर मुझे अपने विचारों को सभी के समक्ष रखने का अवसर ही नहीं मिल पाएगा।

 

स्वातंत्र्यवीर की बात सुनने के बाद नेताजी बोले, मुझे ये नियम मुझे मान्य नहीं है। इस नियम के विरुद्ध हम प्रयत्न करेंगे।

और वो क्रांतिकारियों की गीता बन गई

सन 1908 में स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा लिखित ‘द फर्स्ट इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ का उल्लेख करते हुए धनंजय कीर लिखते हैं कि, यह ग्रंथ क्रांतिकारियों की गीता साबित हुई। 1928 में भगत सिंह और उनके साथियों ने इस ग्रंथ की एक आवृत्ति छापी जिससे क्रांति के लिए प्रेरणा जगाने का कार्य आगे बढ़ा साथ ही उनके कार्य के लिए आर्थिक सहायता जुटाने में मदद मिली।

इस ग्रंथ को 1942 में जर्मनी में फ्रैंड्स ऑफ सोसायटी द्वारा छापा गया।

1943 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में लड़े जा रहे तीसरे स्वतंत्रता संग्राम में स्वातंत्र्यवीर सावरकर का यह ग्रंथ क्रांतिकारियों का मूल मंत्र बन गया। आजाद हिंद सेना की बटालियन, डिवीजन, प्रेरणा गीत सभी स्वातंत्र्यवीर सावरकर के ग्रंथ से प्रभावित थे।

इसे लेकर केएफ नरीमन ‘द हिंदुस्थान’ साप्ताहिक में अपने लेख ‘द सावरकर स्पेशल नंबर’ में लिखते हैं, “आजाद हिंद फौज का विचार और उसमें भी झांसी की राणी रेजिमेंट का उद्भव 1857 की क्रांति पर लिखे वीर सावरकर के ग्रंथ से हुआ प्रतीत होता है।”

 

23 जनवरी का इस वर्ष से भारत के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान हो जायेगा। ऐसा नहीं था की इस दिन की पहले कोई विशेषता नहीं थी, लेकिन इस साल जो कुछ भी घटित होने वाला है वह विशेष है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस जिनको राजनितिक षड्यंत्रों के तहत इतिहास से गायब करने के कुत्सित प्रयास हुए है, उनसे जुड़े सभी रहस्यों का पर्दाफास होने की प्रक्रिया अब शुरू हो गयी है, भले ही किसी भय या मजबूरी वश सरकारें माने या न माने। देश अब नेताजी को वास्तव में एक अलग दृष्टि से देखने लगा है।

 

नेताजी और आज़ाद हिंद फौज के खौफ से मिली आज़ादी

सन 1956 में ब्रिटेन के तात्कालिक प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली भारत आए। ये वही एटली थे जिन्होंने भारत की आज़ादी के ड्राफ्ट पर 1947 में हस्ताक्षर किये थे। जब इनसे पूछा गया की 1942 भारत छोड़ो आंदोलन की विफलता एवं 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध जीतने के बावजूद भी आप भारत को इतनी जल्दी छोड़ने के लिए क्यों तैयार हो गए? एटली का उत्तर था, इसके पीछे का कारण थे सुभाष बोस व उनकी आज़ाद हिन्द फौज। जिसके कारण पूरे देश भर में भारत की आज़ादी को लेकर इस प्रकार का माहौल पैदा हो गया था कि हमें समझ आ गया था कि अब हम भारत में ज्यादा समय तक टिक नहीं सकते। इसी कारण हमें भारत को आज़ाद करने पर विवश होना पड़ा।

वास्तव में बोस अद्भुत नेतृत्व क्षमता व आज़ादी के संघर्ष में आउट ऑफ़ बॉक्स थिंकिंग रखने वाले दूरदृष्टा थे, जो युग से आगे की सोच रखते थे। कूटनीति चालें चलने व परिस्थिति अनुसार कूटनीति पूर्ण योजनाएं बनाने में उनका कोई सानी नहीं था। आज़ाद हिंद फौज, आज़ाद हिंद सरकार, आज़ाद हिंद रेडियो स्टेशन एवं रानी झांसी रेजीमेंट उनके जीवन की विशेष उपलब्धियां थी, जो उनकी दूरदर्शिता का परिचायक बनी।

जनवरी 1938 को जब वे विदेश यात्रा पर थे तब उन्हें अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। जो देश की ओर से किसी भारतीय को दिया जाने वाला उच्चतम पद था। उस समय वे मात्र 41 वर्ष के थे। कांग्रेस का नेतृत्व ग्रहण करने पर भारतीय इतिहास एवं सुभाष के जीवन में नया मोड़ आया। गांधीजी ने सीतारमैया को चाहते थे अतः गांधीजी की इच्छा को ध्यान में रखते हुए सुभाष ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और फारवर्ड ब्लाक नामक अग्रगामी दल की स्थापना की।

सुभाष हिंदू – मुस्लिम एकता की समस्या पर जिन्ना के साथ बातचीत करके वीर सावरकर के सदन पहुंच गये। सुभाष का वीर सावरकर के घर पहुंचना एक ऐतिहासिक घटना थी। अभिनव भारत में इस वृतांत का वर्णन किया है। जिसमें उन्होनें सुभाष को सषस्त्र संघर्ष के नेतृत्व की कमान को संभालने के विचार से अवगत कराया है। सावरकर के विचारों को ध्यानपूर्वक ग्रहण करने के बाद दो मास की अनिवर्चनीय कठिनाइयों एवं गोपनीयता दुविधा, चिंता और शारीरिक कष्टों को झेलते हुए विभिन्न रास्ते पार करते हुए 1941 में अप्रैल माह में मास्को होते हुए बर्लिन पहुंचे।

नौ माह बाद जर्मनी रेडियो से उन्होनें भारतीयों को संबोधित किया तब यह रहस्य खुला कि वे भारत से काफी दूर पहुंच चुके है। उस समय भारत एवं जर्मनी के मध्य उच्चस्तरीय संबंध स्थापित हो चुके थे। जर्मनी ने सुभाष को अंग्रेजों से लड़ने के लिये सभी प्रकार की गतिविधियों को चलाने एवं उनकी सहायता करने की छूट दे दी थी।

आजाद हिंद फौज को यदि महात्मा गांधी और तत्कालीन कांग्रेस पार्टी का भरपूर साथ मिला होता तो भारत को आजादी बहुत समय पहले ही मिल गयी होती। 

 

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