त्रिभुवन सिंह : श्रीकृष्ण का उद्घोष ” मौन ईश के ईश्वरत्व का एक स्वरूप ” 

 ” मौनं चैवास्मि गुह्यानाम् – श्री कृष्ण 

कृष्ण जी ने ईश्वर के ऐश्वर्य के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करते हुए उद्घोष किया कि संसार के सबसे बड़े रहस्यों में है – मौन रहना। मैं वही मौन हूँ। जिसे परम रहस्य कहा गया है। 

अब क्या यह किसी भांति समझाया जा सकता है कि मौन क्या है? यह तो अनुभव मात्र की चीज है। मौन और मन का एकदम 36 का आंकड़ा है। मन के रहते मौन होना संभव नहीं है।

यद्यपि वाणी से मौन होना हम सब जानते हैं। लेकिन हमारा मन मौन नहीं रहता। मन में जागते सोते चौबीस घण्टे विचारों के बादल मंडराते रहते हैं। हो सकता है कि हम मुंह से कुछ न बोलें किन्हीं विशेष अवसरों पर। परंतु मन तो निरन्तर चलता रहता है। मन एक भीड़ है। उस भीड़ में वह सदैव उलझा रहता है। सद्गुरु कहते हैं इसे – मेन्टल डायरिया। मन तो भागता ही रहता है। क्योंकि भागना उसका स्वभाव है। वह अपने स्वभाव को कैसे छोड़ सकता है?

मौन का अर्थ है कि मन की पकड से परे जाना। Going beyond mind. मौन ही ध्यान की परम दशा है जो हमारे घटाए नहीं घटती। वह तो बस घटती हैं। इसीलिये इसे कहा गया है कि यह सद्गुरु या ईश्वर की कृपा है। जो ईश्वर को नहीं मानते उनके लिए शब्द है योग। योग की परम अवस्था, ध्यान की परम अवस्था।

तुलसीदास भक्त थे। वे ईश्वरवादी थे। इसीलिये वे कहते हैं:

सोई जानइ जेहि देहु जनायी।

जानत तुम्हहिं तुम्हइ होई जायी।।

मौन को प्राप्त करना ही मुनि कहलाना है।

मौन को प्राप्त करना ही बुद्धत्व है।

जो लोग पंडित और विद्वान हैं वे कहते हैं कि बुद्ध से जब ईश्वर के बारे में पूंछा गया तो वे मौन रहे। बता तो रहे हैं ईश्वर के स्वरूप को बुद्ध कि मौन रहना ही ईश्वरत्व है। लेकिन हमारी समस्या यह है कि हम हर चीज को शब्दों के माध्यम से समझना चाहते हैं। कैसे समझेंगे कि मौन क्या है? कैसा स्वाद है इसका?

इसको तो तभी जाना जा सकता है जब मौन का स्वाद हमने स्वयं चखा हो।

 

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