अफसरों की बेटी, बीबियों के साथ खिलवाड़ करते थे.. संविधान दिवस के बाद संविधान की हकीकत… -योगेश किसले-
संविधान दिवस के जश्न की खुमारी उतरी हो तो इस संविधान की हकीकत से भी रूबरू हो जाया जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
90 का दशक था । अविभाजित बिहार में लालू यादव का शासन था। पूरा बिहार भ्रष्टाचार , अराजकता, अपराध, नक्सलवाद, लूट खसोट, जातिवाद से ग्रस्त हो गया था।आई.ए.एस.अफसर भी लालू के लिए खैनी ठोकते थे और लालू के प्रिय लोग उन अफसरों की बेटी, बीबियों के साथ खिलवाड़ करते थे।
लालू मसखरी करते और लोग उस मसखरी पर झूमते थे । चारा घोटाला उजागर होने के बाद भी लालू के रुतबे में कमी नही आई। रांची में अदालत में पेशी होने के लिए वे पटना से हाथी में सवार होकर चले। रास्ते भर उनके स्वागत में तोरण द्वार सजे थे । लगता था विश्वविजय के बाद लौट रहे हैं । उनके समर्थक लहालोट हो रहे थे । एक आरोपी का स्वागत शहंशाह की तरह किया जा रहा था । लालू यादव यही पागलपन को देखकर कहते थे कि वे 20 साल तक राज करेंगे।
दरअसल यह दृश्य यह समझने के लिए पर्याप्त है कि इस देश मे लोकतंत्र की क्या औकात रही है। संविधान की आत्मा लोकशाही के भाव मे समाहित है । लेकिन इस देश मे लोकतंत्र का रुतबा ध्वस्त हो गया है। बिहार के जंगल राज जैसी कमोबेश हालत यूपी में मुलायम सिंह यादव , तमिलनाडु में करुणानिधि , महाराष्ट्र में शरद पवार , बिहार में रामबिलास पासवान , झारखंड में शिबू सोरेन , बंगाल में ममता बनर्जी और पूरे देश में गांधी परिवार का रहा है।
लोकतंत्र के इन राजघरानो के आडम्बर से हम मुक्त नही हो पाए हैं । वरना इन पार्टियों के वरिष्ठ और समझदार नेता दो कौड़ी के युवराजों के सामने चिरौरी नही करते रहते। आप कल्पना कीजिये कि राहुल गांधी के सामने कांग्रेस के कद्दावर नेता हाथ जोड़े किस तरह खड़े रहते हैं । रघुवंश प्रसाद मसखरे तेजप्रताप और लल्लु से तेजस्वी के सामने गिड़गिड़ाते नजर आते हैं । अखिलेश के सामने उनके चचा तक की नही चलती।
दरअसल इस देश के लोग मानसिक गुलामी के अभ्यस्त हो गए हैं। उन्हें मसखरेबाज , घोटालेबाज में भी मसीहा दिखता है। हम अभी भी राजतन्त्र में जी रहे हैं और हमारा राजा निहायत ही बदचलन , क्रूर और अराजक है। अभी कवायद चल रही है कि विपक्ष एकसाथ हो जाये और सरकार बनाये। अगर ऐसा होता है तो 130 करोड़ लोग सात आठ परिवारों के गुलाम हो जाएंगे।
एक तो हमने राजनीतिज्ञों को अपना विधाता बना रखा है, जिन्हें सामान्य शिष्टाचार का भी पता नही और उन्ही के अधीन हम अपना भविष्य गिरवी रखने को बेताब हैं। कभी जात के नाम पर , कभी धर्म के नाम पर , कभी क्षेत्र के नाम पर और कभी इनके द्वारा बनाये गए पारिवारिक आडम्बर के नाम पर गुलाम मानसिकता वाली जनता लहालोट है। अब जबकि इन क्षत्रपों से कुछ सूबे मुक्त हैं तब सत्ता से बेदखली की छटपटाहट दिख रही है। शायद अब लोग खुद को गुलाम स्टेटस से बाहर निकालना चाहते हैं। कंगना राणावत के विवादित बयान के निहितार्थ यह भी रहे हों।
गुलामो द्वारा , गुलामो के लिए , गुलामियत से भरे बने ऐसे दस्तावेजो पर बहुत खुश होने की जरूरत नही। अपने देश के हिसाब से , अपनी जरूरतों के अनुसार , अपनी संस्कृति और संस्कारों के अनुरूप , अपनी परंपरा के हितों की खातिर हमे संविधान में परिवर्तन या पुनर्लेखन की जरूरत है। रेफेरेंस के लिए चाणक्य की कूटनीति , कामन्दक की राजनीति , शुक्राचार्य की संहिता , विदुर नीति , नारद के नियम , भोज के सूत्र , विक्रमादित्य की राजप्रणाली की भी मदद ली जानी चाहिए।
