वैदिक मान्यताएं : ईश्वर का स्वरूप (भाग-3)
ईश्वर के स्वरूप के संदर्भ में सामान्यत: ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव का वर्णन किया जाता है । अब तक हमने ईश्वर के गुण और स्वभाव की व्याख्या की है, अब हम ईश्वर के कर्मों का अर्थात् कार्यों का उल्लेख करेंगे।

मुख्यत: ईश्वर के पांच कार्य हैं :
1) सृष्टि की रचना करना,
2) सृष्टि का संचालन करना,
3) सृष्टि का संहार करना,
4) जीव को उसके कर्मों का फल देना ,
5) मानवमात्र के मार्गदर्शन के लिए वेद का ज्ञान देना।
ईश्वर की सत्ता के प्रमाणों के संदर्भ में, हमने ईश्वर के उपरोक्त पांच कार्यों का कुछ उल्लेख किया है। अब हम थोड़ा विस्तार से इनका वर्णन करेंगे।
1) सृष्टि – रचना
ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण है और प्रकृति इसका उपादान कारण। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है, उसी प्रकार ईश्वर ने प्रकृति के मूल तत्त्वों से सृष्टि की रचना की है।
ऋग्वेद (10.72.2) का मंत्र है :
ब्रह्माणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत्।
देवानां पूर्व्ये युगेsसत: सदजायत।।
अर्थात ब्रह्मांड के स्वामी परमात्मा ने लोहार की भांति इन दिव्य पदार्थों के परमाणुओं (The Holy Grail) को धौंका, तप्त किया। युग के पूर्व में, सृष्टि उत्पत्ति समय, अव्यक्त से /असत् (Invisible) से , व्यक्त / सत् (Visible) उत्पन्न हुआ।
किसी भी वस्तु के निर्माण में, उपकरणों की आवश्यकता होती है जैसे लोहार बर्तन बनाने में चक्र का प्रयोग करता है। सृष्टि की उत्पत्ति में ऋत ( Eternal Cosmic Laws) और सत्य (Eternal Spiritual Laws) ईश्वर के उपकरण हैं।
ऋग्वेद (10.190.1) का मंत्र है:
ऋतं च सत्यं चाभीध्दात्तपसोsध्यजायत।
अर्थात् परमात्मा ने अपने सामर्थ्य से ऋतं (प्रकृति नियमों) और सत्यं (आध्यात्मिक नियमों) को उत्पन्न किया। तत्पश्चात्
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्व: ।।
— ऋग्वेद (10.190.3)
अर्थात् सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने सूर्य और चंद्रमा आदि समस्त जगत् को पूर्व कल्प के समान ही बनाया। द्यौलोक, पृथिवीलोक, अंतरिक्ष और प्रकाश्य और अप्रकाश्य समस्त पदार्थों को पूर्व कल्प के समान बनाता है और आगे भी ऐसा ही बनाएगा क्योंकि उसके नियम शाश्वत हैं।
2) सृष्टि – संचालन
ईश्वर सृष्टि की रचना ही नहीं करता, उसका संचालन भी करता है। सृष्टि के समस्त पदार्थ उसकी ऋत- सत्य की कार्यप्रणाली से कार्यरत हैं।
अनन्त अथाह आकाश में हमारी पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है; सूर्य अपने समस्त ग्रहों-उपग्रहों के साथ अपनी आकाशगंगा (Milky Way) की परिक्रमा कर रहा है; हमारी आकाशगंगा अपने अरबों सूर्यों और उनके ग्रहों-उपग्रहों को साथ लिये, प्रति सैकिंड 500 मील की गति से भाग रही है। इसी प्रकार की असंख्य आकाश गंगाएँ (Galaxies) मानो उस हिरण्यगर्भ ईश्वर की गोद में अटखेलियाँ कर रही हैं।
तैत्तिरीय उपनिषद् (2.8.1) का कथन है :
भीषाsस्माद्वात: पवते।
भीषोदेति सूर्य:।
भीषाsस्मादग्निश्चेन्द्रश्च।
मृत्युर्धावति पञ्चम इति ।।
अर्थात् ईश्वर के भय से ही वायु बहता है, इसके भय से ही सूर्य उदित होता है , इसके भय से ही अग्नि और चंद्र अपना कार्य करते हैं। पांचवा मृत्यु भी इसके भय से सब के पीछे भागता है अर्थात् सभी दैवीय शक्तियां उसके नियमानुसार कार्यरत हैं।
इसके अतिरिक्त ईश्वर ने असंख्य योनियों (Species) के लिये उपयुक्त वातावरण पैदा किया। उसने अपनी दया से हमारे लिए वायु, जल, प्रकाश, औषधियों, वनस्पतियों एवं खाद्य सामग्री की व्यवस्था की ।
3) सृष्टि – संहार (प्रलय)
इस विषय पर ईश्वर – प्रकृति सम्बन्ध प्रकरण में प्रकाश डाला जाएगा।
4) कर्माध्यक्ष / न्यायाधीश
अब प्रश्न उठता है कि परमात्मा ने सृष्टि की रचना क्यों की? आनन्द स्वरूप परमात्मा ने अपने ऊपर सृष्टि रचना का सर दर्द क्यों मोल लिया? वह इसलिए क्योंकि ब्रह्माण्ड में, ईश्वर के अतिरिक्त असंख्य जीवात्माएं हैं जो कि उसकी प्रजा है।
वेद कहता है : क्रतुमय: पुरुष: अर्थात् पुरुष (जीव) क्रियाशील है।
गीता (3.5) में भी कहा गया है :
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
अर्थात बिना कर्म किए जीव एक क्षण भी नहीं रह सकता।
जीवविज्ञान का भी सिद्धांत है : Activity is the manifestation of life. अर्थात् क्रिया जीव की पहचान है।
इसलिए सभी जीव अपने अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करेंगे ; कुछ अच्छे कार्य करेंगे, कुछ बुरे कार्य करेंगे। कुछ एक दूसरे से छल कपट करेंगे ; कुछ परोपकार के कार्य करेंगे।
कुछ हत्या व बलात्कर जैसे जघञ्य कार्य भी करेंगे। इनको इनके कर्मों का फल कौन देगा? निस्संदेह, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, कर्माध्यक्ष, न्यायाधीश परमेश्वर।
गोस्वामी तुलसीदास का कथन है:
कर्मप्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।
योग दर्शन का सूत्र है: भोगापवर्गार्थं दृश्यम्।
अर्थात् ईश्वर ने जीव के कर्मानुसार सुख-दु:ख भोग एवं मोक्ष-प्राप्ति के लिये दृश्य जगत् की रचना की।
” कर्मफल सिद्धान्त से,
करे जीव योनि का धारण ।
और आयु, सुख-दुःख-भोग का,
हो यथावत् निर्धारण ।।
जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है,
फल भोगने में परतन्त्र ।
मनुष्य योनि है कर्म योनि,
अन्य सब भोग योनि ।
सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वाध्यक्ष,
परमेश्वर है कर्माध्यक्ष ।।
” तदनुरूप कर्मफल सिद्धान्त से,
है जगत् चल रहा ।
जैसा करोगे वैसा भरोगे,
स्वभाव रूप से बह रहा
मानो कि एक दिव्य कम्प्यूटर,
जगत् में काम कर रहा ।
ऋत-सत्य के सौफ्ट्वेयर से,
स्वतः चालित हो रहा ।
असंख्य जीवात्माओं के,
कर्मों का हिसाब हो रहा ।
जो भी हैं वे कर रहे,
सब कुछ दर्ज हो रहा ।
जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों का उनके,
लेखा-जोखा हो रहा ।
किसे क्या मिले योनि,
यह भी निश्चित हो रहा ।
उस योनि में आयु कितनी,
यह सुनिश्चित हो रहा ।
उसके सुख-दुःख के भोगने का,
प्रावधान भी हो रहा ।
अचूक तटस्थता से सब से,
नितान्त न्याय हो रहा ।
यही सृष्टि-प्रवाह है,
अनादि काल से चल रहा ।।
( योगदर्शन काव्य-व्याख्या से उद्धृत)
5) वेदज्ञान प्रदाता
ईश्वर ने जीवात्माओं के भोग और मोक्ष के लिये सृष्टि की रचना की। यह अनुभव सिद्ध है कि कोई भी व्यक्ति बिना ज्ञान दिये, ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये दयालु परमात्मा ने अपने पुत्रों के मार्ग दर्शन के लिये अग्नि, वायु ,आदित्य और अंगिरस नामक चार ऋषियों के अन्त:करण में चार वेदों का ज्ञान दिया ।
वेदों में जीव के भोग और मोक्ष प्राप्ति हेतु समग्र ज्ञान है। इसे परा (आध्यात्मिक) और अपरा (सांसारिक) विद्या भी कहा जाता है।
वेद पुरुषार्थ चतुष्टय का संदेश देता है : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । मनुष्य को चाहिए कि वह धर्म की परिधि में रहकर अर्थ कमाए और अपनी कामनाओं को पूर्ण करें तत्पश्चात मोक्ष की ओर अग्रसर होवे।
अथर्ववेद (19.71.1) का निम्न मन्त्र सभी कामनाओं की पूर्ति के उपरान्त ब्रह्मलोक में पहुंचाने की प्रार्थना करता है :
स्तुता मया वरदा वेदमाता
प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् ।
आयु:प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं
द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् ।
मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ।।
अर्थात् वेद ज्ञान के प्रदाता, वरों के दाता, विद्वज्जनों को पवित्र करने वाले प्रभो! मैंने वेदविद्या का अनुसरण करते हुए, आपकी स्तुति की है। हे प्रभो! मुझे आयु, प्राणशक्ति, सन्तति, पशु (संसाधन), कीर्ति, धन-धान्य देकर, ब्रह्मलोक ले चलो।।
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Its English Version is available on our Page:
THE VEDIC TRINITY
13) Nature , Characteristics and Functions of God (Part 3)
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शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
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