राजीव मिश्रा : वामपंथ.. कृष्ण को शंका नहीं थी कि उन्हें पांडवों का साथ देना है या कौरव का.. इसलिए..!
कल यहां संघ की शाखा में गया था. एक सज्जन ने बौद्धिक देते हुए बर्बरीक की कथा सुनाई. सुनी सुनी कथा थी… भीम के पौत्र, घटोत्कच के पुत्र, अत्यंत शक्तिशाली बर्बरीक ने निर्णय लिया कि इस युद्ध में जब भी जो पक्ष हार रहा होगा तो वह उसकी ओर से लड़ने लगेगा, और जब दूसरा पक्ष कमजोर हो जायेगा तो उसकी ओर से. यह एक ऐसी अवस्था होगी जब युद्ध निरंतर चलता रहेगा जबतक दोनों पक्ष नष्ट न हो जाएं.
तब कृष्ण ने इंटरवेंशन किया और बर्बरीक का सर काट दिया. फिर बर्बरीक का सर पूरे युद्ध का साक्षी बना, लेकिन शरीर इस युद्ध में प्रतिभागी नहीं बन सका.
कथा सुना दी गई, लोग खाटू श्याम जी के मंदिर और वहां लगने वाले मेले की बात करने लगे. मुझे यह बौद्धिक थोड़ा अधूरा सा लगा. मैंने पूछ दिया… इस कथा का हमारी लाइफ और सोसायटी में मोरल रिलीवेंस क्या है?
बर्बरीक के एथिक्स आपको अपने आस पास अक्सर दिख जाते हैं. जीवन हो या खेल, युद्ध हो या पॉलिटिक्स, अक्सर हममें एक इम्पल्स होता है… अंडरडॉग के साथ खड़े होने का. अक्सर हम कमजोर और पराजित के साथ खड़े होने को नैतिकता का मापदंड बना लेते हैं. फिर चाहे क्रिकेट में केन्या या अफगानिस्तान को ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध सपोर्ट करना हो, या एक इंडस्ट्रियल स्ट्राइक में फैक्ट्री मैनेजमेंट के बजाय मजदूरों का. सही और गलत के जजमेंट को शक्तिशाली और दुर्बल के असेसमेंट से रिप्लेस कर देते हैं. हममें अक्सर एक बर्बरीक जाग जाता है, जो निरंतर और अंतहीन युद्ध की स्थितियां पैदा करता है. और तब कृष्ण को हस्तक्षेप करना पड़ता है, बर्बरीक का सर काट देना पड़ता है, उसे इस युद्ध में प्लेयर के बजाय विटनेस बना देना पड़ता है.
वामपंथ की पूरी एथिकल लाइन ही यही है. वामपंथ की एपिस्टमोलॉजी ऐसी है कि वह मोरल एंबीगुइटी को जन्म देती है. उनके अनुसार नैतिक और अनैतिक, सत्य और असत्य सापेक्ष हैं. तो उनका एथिक्स सत्य और नैतिकता को अपरिभाषित छोड़ देता है और शक्तिशाली और दुर्बल का आकलन करने लगता है. उनकी पूरी टैक्टीकल पोस्चरिंग ही सत्य के बजाय दुर्बल के साथ खड़े होने की है… यह उनको बिना मोरल जजमेंट का कष्ट उठाए एक हाई मोरल ग्राउंड देता है. साथ ही एक सतत संघर्ष की गारंटी देता है जो उनके लिए पॉवर का सोर्स है. उनका कुरुक्षेत्र सर्वव्यापी है, उनका महाभारत निरंतर है. उनका बर्बरीक व्यस्त है और कृष्ण अप्रासंगिक.
यह बर्बरीक सिंड्रोम सिर्फ शक्तिशाली और दुर्बल का ही गणित नहीं लगाता. यह सक्षम और कुशल के विरुद्ध, आलसी और अक्षम के साथ खड़ा होता है. यह अनप्रोडक्टिव और पैरासिटिक के पक्ष में खड़ा होता है और प्रोडक्टिव और इनोवेटिव को दंडित करता है. जिन्होंने ऐन रैंड की “फाउंटेनहैड” पढ़ी है वे इसे एल्सवर्थ टूही के चारित्र में देख सकते हैं. और देख सकते हैं कि समाज में कैसे बर्बरीक कृष्ण से अधिक प्रासंगिक हो जाता है.
अगर एक सतत महाभारत से, संपूर्ण महाविनाश से बचना है तो अपनी एपिस्टमोलॉजी सुधार लें. धर्म बुद्धि नैतिक और अनैतिक का, सत्य और असत्य का अंतर विवेक से करती है. कृष्ण को शंका नहीं थी कि उन्हें पांडवों का साथ देना है या कौरव का. उनका निर्णय इसपर निर्भर नहीं था कि किसके पास कितनी अक्षौहिणी सेना है. उनका निर्णय इसपर आधारित था कि किसका पक्ष नैतिक है. उन्होंने नैतिकता को बाईपास करके कमजोर और अंडरडॉग का साथ देना नहीं चुना. दुर्बल का पक्ष बाई डिफॉल्ट न्याय और नैतिकता का पक्ष नहीं होता. सत्य का निर्णय सिर्फ विवेक से हो सकता है, किसी और सरोगेट टूल से नहीं.
-साभार श्री राजीव मिश्रा।
